जब से है सबकी तन पे बसारत टँगी हुई
बिकने लगी है सड़कों पे इस्मत टँगी हुई
क़ुव्वत अगर हो तुझमें तो तू भी उतार ला
ज़िल्लत के आसमाँ पे है शोहरत टंँगी हुई
घर आने पर भी चैन-ओ-सुकूँ मिल नहीं रहा
दफ़्तर में भूल आया मैं राहत टँगी हुई
तूने उतार फेंका क़बा सा मुझे मगर
दिल में है तेरी आज भी सूरत टंँगी हुई
दो दोस्ती के हाथों के मिलने की आस में
है सरहदों पे आज भी नफ़रत टंँगी हुई
दो मुल्कों की लड़ाई में अक्सर ही देखा है
मैंने कटीले तारों पे चाहत टँगी हुई
दो जा-ए-अम्न मुल्कों की चाहत की ज़ुल्म में
घाटी में लाश बनके है जन्नत टंँगी हुई
बेटी के रात देर से आने पे आज भी
रहती हलक़ में बाप की इज़्ज़त टंँगी हुई
ख़ुद को जो जाति धर्म का रखवाला कहते हैं
घर उनके सूली पर है मुहब्बत टँगी हुई
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