ख़िज़ाँ का फूल बारिश की तरानों में नहीं रक्खा
किसी आँधी ने ख़ुद को आसमानों में नहीं रक्खा
हमारे पाँव वाकिफ़ हैं ज़मीनों की हरारत से
कभी हमने हलक ऊँचे मकानों में नहीं रक्खा
कि जाते जाते हर इक जंग कह जाती है लश्कर से
कि क्यों तलवारों को तुमने मियानों में नहीं रक्खा
हमारा लहज़ा ओढ़े चलती है कागज़ पे हर कालिख़
ये जो आवाज़ है इसको ज़बानों में नहीं रक्खा
किसी ने रक्खा उन टूटी छतों का मलबा आँगन में
किसी ने अपना हीरा भी ख़ज़ानों में नहीं रक्खा
चलो फिर भूख लेकर दौड़ें उन गाँवों की सड़कों पर
यहाँ इक अन्न भी इन कारख़ानों में नहीं रक्खा
ये माना मौत तो पर्वत है पर इस बात से ख़ुश हैं
कभी कंकर सी साँसों को बहानों में नहीं रक्खा
Read Full