यूँ नहीं हम किसी चाहत से तुझे देखते हैं
रोज़-मर्रा की बस आदत से तुझे देखते हैं
इक ज़रा तेरी तवज्जोह भी नहीं जिन की ओर
लोग वो भी कई हसरत से तुझे देखते हैं
दर्द-मंदी से यहाँ कौन मिलाता है नज़र
सब ये अपनी ही ज़रूरत से तुझे देखते हैं
आश्ना-रू भी नहीं जिनके तू मंसूबों से
वो मुनाफ़िक़ बड़ी अज़मत से तुझे देखते हैं
देख यह ख़ब्त कि सज्दों से जिन्हें है परहेज़
वो हवाला-ए-इबादत से तुझे देखते हैं
है सुकूँ-ज़ार ही यह और हम इन आँखों में
मुब्तला होने की शिद्दत से तुझे देखते हैं
तू हमें देखता है रश्क-भरी आँखों से
हम जहाँ भर की मोहब्बत से तुझे देखते हैं
तुझ से है देख शग़फ़ कितना सुख़न-कारों को
ये ख़यालात-ए-इबारत से तुझे देखते हैं
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