दुश्मनी से वो हमें फिर यूँ सज़ा देने लगे
दोस्त बनकर वो हमें ज़ख्म-ए-वफ़ा देने लगे
इश्क़ करने का सिला कुछ इस तरह हमको मिला
लोग क़ातिल बनके फिर दिल की दवा देने लगे
जुर्म हमसे ये हुआ जो सच था उसको सच कहा
अब अदावत में हमें अपने सज़ा देने लगे
मेरे ज़ेर-ओ-बम पे जो बनते थे रश्क-ए-हूर वो
वो ही देखो अब हमें ज़हर-ए-वबा देने लगे
शहर के चौराहे पर चुपचाप बस हम थे खड़े
और जो मासूम थे सब बद-दुआ देने लगे
हर घड़ी झूठे बयानों के चले जो सिलसिले
जो वफ़ा के ख़ान-ए-ख़ानाँ वो खता देने लगे
सरपरस्ती में था जिनके घर मेरा ये फूस का
वो ही आँधी बनके शोलों को हवा देने लगे
मेरे इश्क़-ए-नूर के जो थे मज़म्मत दार सब
मेरी हालत देख कर वो भी दुआ देने लगे
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