बला का हुस्न था उसका नज़र से क़हर ढाती थी
खुली ज़ुल्फ़ों से यकदम ही हवा को आज़माती थी
न जाने किस तरह वो सहती होगी सास के ताने
जो पीहर में ज़रा सी बात पर ही रूठ जाती थी
फ़क़त अब नाम लेना भी उसे अच्छा नहीं लगता
जो मेरे नाम के आगे हमेशा जी लगाती थी
वो क्या दिन थे के बचपन में सभी का लाडला था मैं
कि दादा जी की खेती थी तो दादी गीत गाती थी
पिता का दुख नहीं देखा मगर ये भी नहीं भूला
मुझे जब मारती थी माँ तो चूड़ी टूट जाती थी
झगड़ता था बहन से जब तो माँ से डाँट खाता था
जो माँ से रूठ जाता तो बहन मुझको मनाती थी
हमारी ज़िंदगी में भी मुहब्बत का ज़माना था
ज़माना था कि हमको भी किसी की याद आती थी
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