सद-हैफ़ अदम को ठुकरा कर हस्ती की ज़ियारत कर बैठे
नादाँ थे हम नादानी में जीने की हिमाक़त कर बैठे
ख़ालिक़ ने नवाज़ा रोज़-ए-अज़ल किस तरह हमें क्या बतलाएँ
लेकिन जो अमानत पाई थी हम उस में ख़यानत कर बैठे
इस देस में जब हर रहज़न को रहबर का शरफ़ पाते देखा
क़द्रों के मुहाफ़िज़ हो कर भी क़द्रों से बग़ावत कर बैठे
नौ-ख़ेज़ गुलों के आरिज़ पर जो मौत की ज़र्दी ले आई
उस बाद-ए-सबा से घबरा कर तूफ़ाँ से मोहब्बत कर बैठे
वो दौर गया जब ज़ालिम को माइल-ब-करम करती थी वफ़ा
हम कर के मोहब्बत दुश्मन से सामान-ए-क़यामत कर बैठे
आज़ार न जाने कितने थे 'शाफ़ी' से मुदावा क्या होता
तौहीद के दीवाने थे मगर असनाम की ताअ'त कर बैठे
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