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बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता  - Ghulam Muhammad Qasir

बग़ैर उस के अब आराम भी नहीं आता
वो शख़्स जिस का मुझे नाम भी नहीं आता

उसी की शक्ल मुझे चाँद में नज़र आए
वो माह-रुख़ जो लब-ए-बाम भी नहीं आता

करूँगा क्या जो मोहब्बत में हो गया नाकाम
मुझे तो और कोई काम भी नहीं आता

बिठा दिया मुझे दरिया के उस किनारे पर
जिधर हुबाब तही-जाम भी नहीं आता

चुरा के ख़्वाब वो आँखों को रेहन रखता है
और उस के सर कोई इल्ज़ाम भी नहीं आता

- Ghulam Muhammad Qasir

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