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Dar Shayari
तेरे दर से जब उठ के जाना पड़ेगा
खुद अपना जनाज़ा उठाना पड़ेगा
Khumar Barabankvi
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गर बाज़ी इश्क़ की बाज़ी है, जो चाहो लगा दो डर कैसा
गर जीत गए तो क्या कहना, हारे भी तो बाज़ी मात नहीं
Faiz Ahmad Faiz
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शहर गुम-सुम रास्ते सुनसान घर ख़ामोश हैं
क्या बला उतरी है क्यूँ दीवार-ओ-दर ख़ामोश हैं
Azhar Naqvi
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हम किसी दर पे न ठिटके न कहीं दस्तक दी
सैकड़ों दर थे मिरी जाँ तिरे दर से पहले
Ibn E Insha
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नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे
Shakeel Badayuni
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दिल को तिरी चाहत पे भरोसा भी बहुत है
और तुझ से बिछड़ जाने का डर भी नहीं जाता
Ahmad Faraz
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ख़्याल-ए-हिज्र से डर जाते हैं हम अक्सर
और घबरा के तेरे लब को चूम लेते हैं
Parwez Akhtar
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हुस्न ने शौक़ के हंगामे तो देखे थे बहुत
इश्क़ के दावा-ए-तक़दीस से डर जाना था
Asrar Ul Haq Majaz
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एक नया आशिक़ है उसका, जान छिड़कता है उसपर
मुझको डर है वो भी इक दिन मयखाने से निकलेगा
Siddharth Saaz
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तो क्या उसको मैं होंठों से बजाऊं
तिरे दर पे जो घंटी लग गयी है
चिराग़ उसने मिरे लौटा दिए हैं
अब उसके घर में बिजली लग गयी है
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Fehmi Badayuni
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तुम पर इक दिन मरते मरते मर जाना है,
दीवाने को कहाँ ख़बर है घर जाना है
एक शब्द तुमको अंधेरे का खौफ़ दिलाकर,
बाद में खुद भी जान बूझकर डर जाना है
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Vishal Singh Tabish
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बेकार खयालों से लिपट कर नहीं देखा
जो कुछ भी हुआ हम ने पलट कर नहीं देखा
इस डर से के कट जाए ना बीनाई के रेशे
आंखों ने तेरी राहों से हटकर नहीं देखा
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Farhat Abbas Shah
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मुसाफिरों के दिमागों में डर ज़ियादा है
न जाने वक़्त है कम या सफर ज़ियादा है
Hashim Raza Jalalpuri
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किसे है वक़्त मोहब्बत में दर-ब-दर भटके
मैं उसके शहर गया था किसी ज़रूरत से
Riyaz Tariq
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जाने से कोई फ़र्क ही उसके नही पड़ा
क्या क्या समझ रहा था बिछड़ने के डर को मैं
Shariq Kaifi
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आँख की बेबसी दिल का डर देखना
तुम किसी दिन ग़रीबों का घर देखना
Alankrat Srivastava
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एक मुद्दत से मिरी माँ नहीं सोई 'ताबिश'
मैं ने इक बार कहा था मुझे डर लगता है
Abbas Tabish
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फ़ुर्सत नहीं मुझे कि करूँ इश्क़ फिर से अब
माज़ी की चोटों से अभी उभरा नहीं हूँ मैं
डर है कहीं ये ऐब उसे रुस्वा कर न दे
सो ग़म में भी शराब को छूता नहीं हूँ मैं
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Harsh saxena
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मैं डर रहा हूँ तुम्हारी नशीली आँखों से
कि लूट लें न किसी रोज़ कुछ पिला के मुझे
Jaleel Manikpuri
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सितारे और क़िस्मत देख कर घर से निकलते हैं
जो बुज़दिल हैं मुहूरत देखकर घर से निकलते हैं
हमें लेकिन सफ़र की मुश्किलों से डर नहीं लगता
कि हम बच्चों की सूरत देखकर घर से निकलते हैं
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Abrar Kashif
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