ये नदी वर्ना तो कब की पार थी
मेरे रस्ते में अना दीवार थी
आप को क्या इल्म है इस बात का
ज़िंदगी मुश्किल नहीं दुश्वार थी
थीं कमानें दुश्मनों के हाथ में
और मेरे हाथ में तलवार थी
जल गए इक रोज़ सूरज से चराग़
रौशनी को रौशनी दरकार थी
आज दुनिया के लबों पर मुहर है
कल तलक हाँ साहब-ए-गुफ़्तार थी
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