सफर के बाद भी ज़ौक़-ए-सफर न रह जाए
ख्याल-ओ-ख्वाब में अब के भी घर न रह जाए
मैं सोचता हूँ बहुत ज़िन्दगी के बारे में
ये ज़िन्दगी भी मुझे सोच कर न रह जाए
बस एक खौफ में होती है हर सहर मेरी
निशान-ए-ख्वाब कहीं आँख पर न रह जाए
ये बे-हिसि तो मेरी ज़िद थी मेरे अज्ज़ा से
की मुझ में अपने तआक़ुब का दर न रह जाए
हवा-ए-शाम तेरा रक़्स न-गुज़िर सही
ये मेरी खाक तेरे जिस्म पर न रह जाए
उसी की शक्ल लिया चाहती है खाक मेरी
सो शहर-ए-जान में कोई कूज़ा -गर न रह जाए
गुज़र गया हो अगर क़ाफ़िला तो देख आओ
पास-ए-ग़ुबार किसी की नज़र न रह जाए
मैं एक और खड़ा हूँ हिसार-इ-दुनिया के
वो जिस की ज़िद में खड़ा हूँ उधर न रह जाए
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