वफ़ाओं के, न वादों के, न क़समों के ज़माने हैं
ये सब झूठे बहाने हैं ये सब क़िस्से पुराने हैं
चला ही जाऊँगा इस बज़्म से, कुछ देर तो ठहरूँ
अभी अपने लिए उस आँख में आँसू कमाने हैं
तुझे भी इश्क़ में हरगिज़ नहीं कुछ नाम करना है
मुझे भी कोशिशें करके कहाँ पर्वत झुकाने हैं
ज़माने से नहीं वाक़िफ़ अभी नादान हूँ माना
मगर इक दिन सलीक़े ज़िन्दगी के आ ही जाने हैं
चराग़ों! बुझ रहे हो क्यों तुम्हें जलना सहर तक है
अभी तो रात बाक़ी है अभी कुछ ग़म भुलाने हैं
हवाओं मत बुझाओ तुम दिया मेरी उमीदों का
भटकते हैं मुसाफ़िर जो इसी रस्ते से आने हैं
भिगोना छोड़कर दामन करो कुछ यूँ मेरे अश्कों!
ज़रा आतिश में ढल जाओ कि उसके ख़त जलाने हैं
तुम्हीं-तुम हो कहानी में हमारे नाम पर 'माहिर'
तुम्हारे नाम पर देखो यहाँ कितने फ़साने हैं
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