दिल का कूचा फिर कभी महका नहीं
बाद तेरे वक़्त भी गुज़रा नहीं
हर किसी से राब्ता रक्खा नहीं
और कोई मुझ तलक रस्ता नहीं
साँस नदियाँ ले रही हैं आख़िरी
दिल समन्दर का मगर भरता नहीं
ज़ोर से पकड़ो न कोई रिश्ता तुम
आब चटके प्यालों में ठहरा नहीं
जिस्म-ओ-जाँ में फिर न आई लर्ज़िशें
लम्स तेरा ले कोई गुज़रा नहीं
बेतअल्लुक़ गुफ़्तगू करती हूँ मैं
जब किसी से दिल मेरा मिलता नहीं
कर रही हो आज भी शिकवा 'प्रिया'
ज़ीस्त ने शायद तुम्हें तरशा नहीं
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