गिर जाए चाहे बिजलियाँ नन्ही सी जान पर
काग़ज़ की क़ीमतें यहाँ हैं आसमान पर
रिंदों की देख-रेख में ये लड़का पल रहा
इक दिन ज़रूर गाएगी उल्फ़त ज़बान पर
ऐ ज़िंदगी मुझे भी तू पहचानती नहीं
सज्दे किए हैं मैंने तेरे इक अज़ान पर
काग़ज़ के फूल दोस्त कभी फाड़ना नहीं
चाहे कमल खिलाते रहो आसमान पर
दिनभर का भाग-दौड़ भी जादू सा खो गया
उसने जो उँगलियाँ रखीं मेरी थकान पर
हम अपनी आग में ख़ुदा को जोड़ते नहीं
तुम उड़ रही हो जान अभी किस गुमान पर
उस ओर जा रहे हो तो लैला को बोलना
मजनूँ का सब्र टूट गया इक किसान पर
क्या ही करेगा इतनी शरीफ़ों की ज़िंदगी
राकेश इक नज़र तो उठा इस मकान पर
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