मेरी उम्र भर की चाहत यूँ गुलों में ढल रही है
वो क़रीब आ रहे हैं मेरी जाँ निकल रही है
मेरे मौला मेरी ख़्वाहिश मेरा दम निकाल देगी
मुझे ऐसा दिख रहा है वो पहन-बदल रही है
मैं तमाम रात तड़पा मैं तमाम रात जागा
कोई पास आ रहा है शब-ए-ग़म पिघल रही है
मेरे दिल के आइने में कभी अक्स बनके उभरी
मैं जिसे निभा न पाया ये वही ग़ज़ल रही है
मैं इसी तलब में बरसों से हूँ स्याहियाँ उलटता
मुझे जाम देने वाले मेरी बात टल रही है
मेरा दिल दुखाने वाले तुझे ये भी क्या पता है
मेरे हसरतों की तह में तेरी बात चल रही है
कभी कोई आरज़ू थी कभी कोई आरज़ू है
मेरे मौला मेरी ख़्वाहिश मुझे अब भी छल रही है
मैं नई तलब का शायर मैं नई ग़ज़ल का काइल
नए दौर की क़यामत मुझी में उबल रही है
ये दुआ है कैसी 'राकेश' ये कैसा मोजिज़ा है
वो तड़प के आ रहे हैं मेरी नब्ज़ चल रही है
As you were reading Shayari by Rakesh Mahadiuree
our suggestion based on Rakesh Mahadiuree
As you were reading undefined Shayari