Akhtar Saeed

Akhtar Saeed

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Akhtar Saeed shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Akhtar Saeed's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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ख़ाली है ज़ेहन ताक़त-ए-गुफ़्तार क्या करे
है आँख बंद रौज़न-ए-दीवार क्या करे

हम अक़्ल दिल के सामने रखते रहे वले
दरिया के आगे रेत की दीवार क्या करे

जी मेरा अब तो मेरी भी सोहबत से तंग है
हर रिश्ता याँ है बाइस-ए-आज़ार क्या करे

हर-सू है काएनात में अपने लहू का रंग
हो चश्म-ए-दिल से दूर तो दीदार क्या करे

कहता हूँ बार बार समझता नहीं कोई
बहरा हो दिल तो बात पे इसरार क्या करे

जुज़ तेग़ दर्द-ए-जाँ का नहीं कोई शय इलाज
ख़ाली है हाथ दीदा-ए-ख़ूँ-बार क्या करे

हर फ़लसफ़े से शौक़ है आज़ाद सर-ब-सर
इक़रार क्या करे यहाँ इंकार क्या करे

उलझे हुए हैं कितने तमन्ना के सिलसिले
ऐ ख़ालिक़-ए-हयात गुनाहगार क्या करे

राह-ए-नबी में बच्चे जवाँ-पीर सब गए
खे़मे में तन्हा आबिद-ए-बीमार क्या करे
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Akhtar Saeed
मबदा-ए-हुस्न से कैसे ये जुदा है यकसर
कि ज़मान और मकाँ एक अदा है यकसर

ये जो दी है हमें आज़ादी-ए-अफ़्क़ार-ओ-अमल
कोई बतलाओ जज़ा है कि सज़ा है यकसर

वक़्त है तेशा-ओ-शमशीर का जिस में कब से
वो हथेली अभी मसरूफ़-ए-दुआ है यकसर

मर्हबा जश्न-ए-जिबिल्लत कि नहीं हम पाबंद
मर्हबा ज़ीस्त कि आज़ाद-ए-हया है यकसर

बात कहने को है कुछ और जहाँ का ममदूह
बाल-ए-जिब्रील नहीं बाल-ए-हुमा है यकसर

तू समझता है जिसे अपना मुइज़्ज़-ओ-रज़्ज़ाक़
हम समझते हैं वही तेरा ख़ुदा है यकसर

आज जो फ़ितरत-ए-आदम नज़र आती है हमें
ये मिरी जान ज़माने की हुआ है यकसर

मम्बा-ए-फ़ैज़ से आती है जो रहमत याँ तक
ये हमें आल-ए-मोहम्मद की अता है यकसर

ख़ालिक़-ए-ख़त्म-ए-रुसुल आल-ए-एबा का मस्जूद
अपना मस्जूद मगर आल-ए-एबा है यकसर
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Akhtar Saeed
मिरी निगाह में है ख़ाक सीम-ओ-ज़र का फ़ुसूँ
सुबूत-ए-मो'जिज़ा-ए-रफ़्तगान-ए-आलम हूँ

दिया है मुझ को मगर बे-सुरूर हंगामा
मिला है मुझ को मगर वक़्फ़-ए-इज़्तिराब-ए-सुकूँ

न चाँद में है चमक अपनी और न शबनम में
करूँ तो किस का ज़माने में ए'तिबार करूँ

जो दिल में बात है अल्फ़ाज़ में नहीं आती
सो एक बात है दिल की लगी कहूँ न कहूँ

सज़ा है मेरी रहो उस दयार में कि जहाँ
गराँ है आब-ए-मुसफ़्फ़ा मगर है अर्ज़ां ख़ूँ

सवाल-ए-अक़्ल वही है जवाब-ए-जेहल वही
हज़ार बार करूँ दस हज़ार बार सुनूँ

ख़फ़ा है रंग-ए-गुल-ओ-मौजा-ए-सबा मुझ से
कि बाँधता हूँ दिल-ए-बे-क़रार का मज़मूँ

मुझे तो अपने पे इक लम्हा ए'तिबार नहीं
निगार-ए-दहर तुझे गरचे बा-वफ़ा समझूँ

हज़ार रास्ते पिन्हाँ हैं रेग-ए-सहरा में
जो दम में दम हो तो इस दश्त की हवा देखूँ

खुला है आल-ए-मोहम्मद के फ़ैज़ से मुझ पर
कि आदमी को भी है इख़्तियार-ए-कुन-फ़यकूँ

बुलंद बा'द-ए-शहादत भी है ये नोक-ए-सिनाँ
सर-ए-इमाम किसी हाल भी नहीं है निगूँ
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Akhtar Saeed
दिल के रहने के लिए शहर-ए-ख़यालात नहीं
सर-ब-सर है नफ़ी इस में कहीं इसबात नहीं

रंज गर वाँ से तो राहत भी वहीं से आवे
कौन कहता है यहाँ वहदत-ए-आयात नहीं

मुझ से कहते हैं हवाएज से सरोकार न रख
मेरी तारीफ़ ब-जुज़ क़िस्सा-ए-हाजात नहीं

कोई बतलाओ शब-ओ-रोज़ पे क्या गुज़री है
रात ख़ामोश नहीं दिन में कोई बात नहीं

थी फ़लातूँ की जो जम्हूर से रु-गर्दानी
हम समझते थे ख़ुराफ़ात ख़ुराफ़ात नहीं

दिल से गुज़रे कभी दुश्मन के लिए फ़िक्र-ए-ज़रर
वो वतीरा नहीं मेरा मिरे जज़्बात नहीं

अहद-ए-बे-मेहर में इक चाल मोहब्बत भी चले
शह में बाज़ी है मिरी गरचे अभी मात नहीं

साहिबा देखना हद से न बढ़े यूरिश-ए-ग़म
ना-तवाँ दिल है मिरा खेमा-ए-सादात नहीं
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Akhtar Saeed
अख़्तर' को तो रीए में भी है आर क्या करे
बैठा हुआ है देर से बे-कार क्या करे

यक हुजूम-ए-दर्द और और ई तमाम
दिल ज़ेर पर लगाए है मिंक़ार क्या करे

तारीख़ कि रही है कि मिटता नहीं है ज़ुल्म
मुख़्तार-ए-कुल बता तिरा संसार क्या करे

खींचे है सब को दस्त-ए-फ़ना एक सा तो फिर
एक सादा-लौह करे यहाँ अय्यार क्या करे

कोई नहीं है मुझ को हुनर रोज़गार का
जुज़ ख़ाकसार मिदहत-ए-सरकार क्या करे

जो सारी काएनात की फ़ितरत का हो अमीं
हर तजरबे का जो हो ख़रीदार क्या करे

जी मुज़्तरिब है हिद्दत‌‌‌‌-ए-कील-ओ-मक़ाल में
ढूँडे है कोई साया-ए-दीवार क्या करे

शहरों में मेरी ख़ाक अड़े मिस्ल-ए-बू-ए-गुल
बे-शामा है ख़ल्क़-ए-तरह-दार क्या करे

मौला मदद कि मैं हूँ अज़ादार-ए-आल-ए-ऊ
आक़ा तिरे बग़ैर गुनाहगार क्या करे
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Akhtar Saeed
बे-चारगी-ए-दोश है और बार-ए-गराँ है
इज़हार पे पाबंदी है और मुँह में ज़बाँ है

होता है यहाँ रोज़ मिरे दर्द का सौदा
ऐ तेग़-ब-कफ़ रोज़-ए-मुकाफ़ात कहाँ है

आज़ाद करो ख़ून को बाज़ार में लाओ
सदियों से ये महकूम रगों ही में रवाँ है

हाँ रंग-ए-बहाराँ है मगर उस के लहू से
जो दस्त-ब-दिल मोहर-ब-लब दर्द-ब-जाँ है

हर सम्त है बाज़ार खुला हिर्स-ओ-हवस का
हर शहर में हर कूचे में वाइ'ज़ की दुकाँ है

कल किस को ज़बाँ बंद करोगे ज़रा सोचो
कल देखोगे हम को कि ज़बाँ है न दहाँ है

किस शहर-ए-ख़मोशाँ में चले आए हैं हम लोग
ने ज़ोर-ए-सिनाँ है न कहीं शोर-ए-फ़ुग़ाँ है

हर दर्द की हद होती है यूँ लगता है जैसे
इस दर्द का कोई न ज़माँ है न मकाँ है
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Akhtar Saeed
दाना हुए बुज़ुर्ग हुए रहनुमा हुए
वो दिन कि हम थे शम-ए-मजालिस हवा हुए

उन को नहीं दिमाग़-ए-तलज़्ज़ुज़ जहान में
जो इब्तिदा से वक़्फ़-ए-ग़म-ए-इंतिहा हुए

ख़ुर्शेद की निगाह से शबनम है मुश्तहर
वो आश्ना हुए हैं तो सब आश्ना हुए

मंज़िल है शहरयारी-ए-आलम तो देखना
इस राह में हज़ारों क़बीले फ़ना हुए

हद से ज़ियादा हम ने ख़ुशामद बुतों की की
ये लोग बढ़ते बढ़ते बिल-आख़िर ख़ुदा हुए

इस का भी कुछ हिसाब करेंगे ब-रोज़-ए-हश्र
नाले अज़ल से कितने सिपुर्द-ए-सबा हुए

करते रहे हुज़ूर पे तकिया अख़ीर तक
हम आसरे के होने से बे-आसरा हुए

किस दिन हमारा हिर्स-ओ-हवा से बरी था दिल
किस रोज़ हम से अपने फरीज़े अदा हुए
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Akhtar Saeed
उर्दी-ओ-दै से परे सूद-ओ-ज़ियाँ से आगे
आओ चल निकलें कहीं क़ैद-ए-ज़माँ से आगे

इस ख़राबे में अबस हैं ग़म-ओ-शादी दोनों
मेरी तस्कीन का मस्कन है मकाँ से आगे

आह-ओ-नाला ही सही अहल-ए-वफ़ा का मस्लक
इक मक़ाम और भी आता है फ़ुग़ाँ से आगे

दार तक साफ़ नज़र आता है रिश्ता देखें
फिर किधर जाते हैं उश्शाक़ वहाँ से आगे

ख़ून-आलूदा कफ़न शारेह-ए-सद-दफ़्तर-ए-दिल
तर्ज़-ए-इज़हार है इक और ज़बाँ से आगे

फ़िक्र मफ़्लूज जो ज़िंदानी-ए-अफ़्लाक रहे
तीर बे-कार जो निकले न कमाँ से आगे

थी बहुत ख़ाना-ख़राबी को हमारी ये उम्र
इक जहाँ और भी सुनते हैं यहाँ से आगे

मैं कि हूँ हाज़िर-ओ-मौजूद के वसवास में क़ैद
तू कि है पर्दा-नशीं वहम-ओ-गुमाँ से आगे
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Akhtar Saeed
फिर सबा गुज़री है दर-ए-सेहन-ए-चमन क्या कहना
अब तलक काँपते हैं सर्व-ओ-समन क्या कहना

ज़र्रा-ए-ख़ाक हूँ मैं सैल-ए-हवादिस के लिए
और इस ज़र्रे में दिल शाह-ए-ज़मन क्या कहना

जिस्म के हुक्म से आज़ाद हो जाँ चाहा था
रूह के हुक्म से आज़ाद है तन क्या कहना

शहर वीरान हुआ गोर-ए-ग़रीबाँ की तरह
उस पे मैं और मिरी रंगीनी-ए-फ़न क्या कहना

है गराँ तब-ए-शहीदाँ पे मज़ार-ओ-मर्क़द
जिस्म ख़ूँ-बस्ता है ख़ुद उन का कफ़न क्या कहना

लेक ये भी तो खुले कुछ तिरी निय्यत क्या है
नुदरत-ए-फ़िक्र और अंदाज़-ए-सुख़न क्या कहना

आख़िरश सहल हुआ नफ़-ओ-ज़रर का मतलब
अब हर इक चीज़ पे चस्पाँ है समन क्या कहना

ज़ीस्त इक पल है फ़क़त देखिए क्या कीजिए क्या
और इस पल में भी सद रंज-ओ-मेहन क्या कहना

इस क़दर ख़ौफ़ में हूँ मैं कि न नींद आवे है
किस क़दर ख़्वाब में हैं अहल-ए-वतन क्या कहना
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Akhtar Saeed
हमारे पास है हिकमत न राज़ क्या कीजे
सिवाए दर्द-ए-दिल-ए-जाँ-गुदाज़ क्या कीजे

इनायतें हैं अगरचे हज़ार-हा लेकिन
बने न बात तो बंदा-नवाज़ क्या कीजे

न ज़र्ब-ओ-तार से रिश्ता न दिल-फ़रेबी-ए-दम
मिरे ख़याल को आलम है साज़ क्या कीजे

ज़े-रू-ए-फ़िक़्ह जो सब से ज़ियादा है मा'तूब
हमारी उस से भी है साज़-बाज़ क्या कीजे

जो जानते हैं नहीं जानते न जाने हैं
जो है अयाँ यहाँ वो भी है राज़ क्या कीजे

जहाँ गुज़ारिश-ए-अहवाल पर हों ताज़ीरें
सिवाए जुरअत-ए-अर्ज़-ए-नियाज़ क्या कीजे

खुला इक उम्र की कोशिश से ये कि लिक्खा है
हमारे नाम नशेब-ओ-फ़राज़ क्या कीजे

बुरा हो लज़्ज़त-ए-तख़ईल का कि रहती है
हक़ीक़तों में तलाश-ए-मजाज़ क्या कीजे

हज़ार दर्द है और जान-ए-ना-तवाँ मेरी
इलाज है न गले का जवाज़ क्या कीजे
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Akhtar Saeed
जूँ फ़ौज कि मफ़्तूह हो ज़ंजीर में आवे
अल्फ़ाज़ का लश्कर मिरी तहरीर में आवे

इक ख़ास इनायत है कि देते नहीं मुझ को
वो दर्द कि जो पंजा-ए-तदबीर में आवे

यकसर रग-ए-मंसूर की हिम्मत से परे है
वो इल्म कि इक अर्सा-ए-तक़तीर में आवे

जो चाहे भरे मैं ने मुसव्विर से कहा था
कुछ रंग-ए-मोहब्बत मिरी तस्वीर में आवे

वो बात ख़ुशा देता है दिल जिस की गवाही
ये क्या कि कहो अगली असातीर में आवे

जो हुक्म तुम्हारा है वो वाजिब है बिला-शक
जो अर्ज़ हमारी है वो ता'ज़ीर में आवे

है गरचे बहुत मेरे लिए ख़्वाब की दुनिया
कुछ और मज़ा ख़्वाब की ता'बीर में आवे

जिस पास मुदावा नहीं कुछ आब-ओ-हवा का
लाज़िम है मिरे हल्क़ा-ए-तक़रीर में आवे

मुमकिन नहीं आदम के लिए शान-ए-ख़ुदाई
हाँ यूँ कि मगर आया-ए-ततहीर में आवे
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Akhtar Saeed
ख़ूबी-ए-तर्ज़-ए-मक़ालात से क्या होता है
बात करते रहे हम बात से क्या होता है

रात कट जाए तो फिर रात चली आएगी
रात कट जाएगी इक रात से क्या होता है

किसी जानिब से जवाब आए तो कुछ बात चले
काविश-ए-हुस्न-ए-सवालात से क्या होता है

जब कि तक़्तीर-ए-रग-ए-जाँ से बंधी है तक़दीर
बे-ख़बर ज़िक्र-ओ-मुनाजात से क्या होता है

दान दीजे कि मिरे ग़म का मुदावा होवे
रंज होता है हिसाबात से क्या होता है

दिल की वुसअत से है आसानी-ए-अन्फ़ास वले
वुसअत-ए-सहन-ए-महल्लात से क्या होता है

सामने आओ किसी रोज़ तो कुछ बात करें
उम्र-भर हल्ल-ए-मुअम्मात से क्या होता है

ज़ात ही मज़हर-ए-मेआ'र-ए-हक़-ओ-बातिल है
वो ग़लत कहते हैं कि ज़ात से क्या होता है

जाँ निकल जाएगी तो फ़ैसला देंगे चे ख़ूब
साहिबो ऐसी मुकाफ़ात से क्या होता है
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Akhtar Saeed
ख़ुद से कितना किया दग़ा मैं ने
अभी सीखी नहीं वफ़ा मैं ने

निकला चूहा पहाड़ को खोदा
जो किया जो कहा सुना मैं ने

खोलिए क्यूँ दुखों के दफ़्तर को
सोचना बंद कर दिया मैं ने

हाँ लगाया है ज़िक्र अज़्मत पर
ज़ोर से एक क़हक़हा मैं ने

हासिल-ए-ज़ीस्त है कि देखा है
सुम्बुल-ओ-सब्ज़ा-ओ-सबा मैं ने

ज़िंदगी ज़हर था उसे सुक़रात
जुरआ' जुरआ' मगर पिया मैं ने

छुप के बैठा हूँ शर्मसारी से
का'बे से दूर ली है जा मैं ने

ये तो तज़लील है शहादत की
कभी माँगा न ख़ूँ-बहा मैं ने

जब बढ़ी और शर्म-ए-उर्यानी
ओढ़ ली ख़ाक की क़बा मैं ने

अपने दिल को तो सी नहीं सकता
अपने होंटों को सी लिया मैं ने

ख़ौफ़ से भाग निकला मज्लिस से
जब सुना ज़िक्र-ए-कर्बला मैं ने
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Akhtar Saeed
हर घड़ी फ़िक्र-ए-रास्ती क्या है
इक मुसीबत है ज़िंदगी क्या है

घुप अंधेरा है मेरे चारों-ओर
इस में थोड़ी सी रौशनी क्या है

बहुत उलझा हुआ हिसाब है ये
मेरा खाता है क्या बही क्या है

नाम हैं नफ़्स की परस्तिश के
दोस्ती क्या है दुश्मनी क्या है

शहर में रह के देखिए इक दिन
दूर जंगल में राहेबी क्या है

सारी बातों का मैं मुसन्निफ़ हूँ
मेरे आगे लिखी सुनी क्या है

मैं ने देखा है ख़ूँ की शम्ओं' से
गुम-रही क्या है रह-रवी क्या है

अहद-ए-पीरी में अपनी लौह-ए-ज़मीर
साफ़ हो गर तो ख़ुसरवी क्या है

ये तज़ादात ये सराब ये दिल
ज़िंदगी क्या है आदमी क्या है

बंद अश्काल में मुक़य्यद हूँ
अक़्ल किस काम आगही क्या है

सोचता हूँ तो कुछ नहीं खुलता
जानता हूँ मगर बदी क्या है

दिल में वसवास या-अली क्यूँ है
सर-ए-महजूब या-नबी क्या है
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Akhtar Saeed
इश्क़ का शोर करें कोई तलबगार तो हो
जिंस बाज़ार में ले जाएँ ख़रीदार तो हो

हिज्र के सोख़्ता-जाँ और जलेंगे कितने
तूर पर बैठे हैं कब से तिरा दीदार तो हो

शिद्दत-ए-दर्द दो-पल के लिए कम होता कि
ग़म के अल्फ़ाज़ के सिंगार में इज़हार तो हो

कब से उम्मीद लगाए हुए बैठे हैं हम
ने सही गर नहीं इक़रार सो इंकार तो हो

कुफ़्र एहराम के पर्दे में छुपा देखा है
एक आलम है अगर दरपय ज़ुन्नार तो हो

हम ने माना कि शराफ़त है बड़ी चीज़ मगर
कुछ ज़माने को शराफ़त से सरोकार तो हो

ख़ाना-ए-दिल में नहीं एक किरन का भी गुज़र
सारी दुनिया है अगर मतला-ए-अनवार तो हो

राज़दारी ही में होता है शरीफ़ों का हिसाब
तुझ को मंज़ूर है गर बर-सर-ए-बाज़ार तो हो
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है नसीम-ए-सुब्ह आवारा उसी के नाम पर
बू-ए-गुल ठहरी हुई है जिस कली के नाम पर

कुछ न निकला दिल में दाग़-ए-हसरत-ए-दिल के सिवा
हाए क्या क्या तोहमतें थीं आदमी के नाम पर

फिर रहा हूँ कू-ब-कू ज़ंजीर-ए-रुस्वाई लिए
है तमाशा सा तमाशा ज़िंदगी के नाम पर

अब ये आलम है कि हर पत्थर से टकराता हूँ सर
मार डाला एक बुत ने बंदगी के नाम पर

कुछ इलाज उन का भी सोचा तुम ने ऐ चारागरो
वो जो दिल तोड़े गए हैं दिलबरी के नाम पर

कोई पूछे मेरे ग़म-ख़्वारों से तुम ने क्या किया
ख़ैर उस ने दुश्मनी की दोस्ती के नाम पर

कोई पाबंदी है हँसने पर न रोना जुर्म है
इतनी आज़ादी तो है दीवानगी के नाम पर

आप ही के नाम से पाई है दिल ने ज़िंदगी
ख़त्म होगा अब ये क़िस्सा आप ही के नाम पर

कारवान-ए-सुब्ह यारो कौन सी मंज़िल में है
मैं भटकता फिर रहा हूँ रौशनी के नाम पर
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Akhtar Saeed
दर्द इक रोज़ कोई रंग दिखाए तो बने
रूह गर छोड़ के तन दहर में आए तो बने

नज़र आएँ तिरे चेहरे के ख़द-ओ-ख़ाल तमाम
दिल से उठ जाएँ कभी वहम के साए तो बने

वहदत-ए-दर्द हो क़रियों में हवा की मानिंद
एक हो जाएँ अगर अपने पराए तो बने

वाइज़ाँ मुज़्दा कि जन्नत में बहार आई है
मेरी दुनिया से ख़िज़ाँ लौट के जाए तो बने

देव-ए-तक़दीर खड़ा है मेरे आगे हर दम
कोई तदबीर इसे ज़हर पिलाए तो बने

जिस को देखा किसी मुर्दे का मुक़ल्लिद देखा
अपनी हो जाए हर इक शख़्स की राय तो बने

सब के दुख सुनता हूँ मैं ज़ोफ़-ए-ज़ईफ़ी में वले
मेरा दुख कोई मिरी माँ को सुनाए तो बने

अपने आ'माल को औरों से छुपा रक्खा है
मेरी निय्यत को कोई मुझ से छुपाए तो बने

मैं बनाता तो बहुत हूँ नहीं बनती लेकिन
वो इनायत से मिरी बात बनाए तो बने
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Akhtar Saeed

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