Jawaz Jafri

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Jawaz Jafri shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Jawaz Jafri's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Nazm
ऐ तीन चेहरों में
रौशन पेशानी वाले
तेरा नक़्श
पाएदार और क़दीम है
तू ने सफ़ेद बैज़वी ज़िंदाँ से
बाहर पाँव रखा
तो ज़मीन तेरे इस्तिक़बाल के लिए
मौजूद न थी
तू ने नर्म लहजे में
नापैद सम्तों को आवाज़ दी
और अपने चारों और फैलने लगा

तू ने कँवल की पत्तियों से
बिछौना तख़्लीक़ किया
और अपनी ज़िंदगी का अव्वलीन ख़्वाब देखने लगा
एक अज़ीम दुनिया की तख़्लीक़ का ख़्वाब
तू ने हवाओं को कात कर
आसमानों की चादर बनाई
और खौलते समुंदरों की गहराई से
ज़मीन को बाहर निकाल लाया
तू ने चुटकी-भर रौनक़
ज़मीन के चेहरे पे मिल दी

तू ने मेरे लिए
सुरमई रंग का घोड़ा तख़्लीक़ किया
और अपने लिए
सफ़ेद बतख़
ज़मीन
सिमट कर मेरे तलवे से आ लगी
तो समुंदरों की सियाहत पर
रवाना हो गया

ऐ अज़ीम बाप
तेरे तीरथ के मुक़द्दस पानियों में
ताज़ा जिस्मों के गुलाब महकते हैं
तू ने अपने ढाक के सब्ज़ पत्तों से
ज़मीन के लिए साया बनाया
और तन्हाई का सिक्का
समुंदर में बहा दिया
तू ने अपने लिए सरस्वती तख़्लीक़ की
और उस के पहलू से लिपट कर
दुनिया की मिस्मारी का ख़्वाब देखने लगा
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आख़िरी बार
कोह-ए-निदा के उस पार
उस के सुनहरी वजूद की आयत
मेरे दिल के क़िर्तास पर
तसतीर होई
मैं
सात सवालों के जवाब तलाश करता हुआ
इस अजनबी सर-ज़मीन पर
उतरा था

उस की सुनहरी नाफ़ का प्याला
ख़ुतन से आई
कस्तूरी से लबरेज़ था
और सीने पर
लाला के दो फूल खिले थे
रौशनी
उस के चेहरे के ख़द्द-ओ-ख़ाल तख़्लीक़ करने में
मसरूफ़ थी

वो
सियाह पैरहन पहने
हीरे के तख़्त को
ठोकर पे लिए बैठी थी
उस
के पहलू में
वफ़ादार ग़ुलाम ईस्तादा थे
जिन के मोहब्बत से लबरेज़ दिल
उन की हथेलियों पे धड़कते थे

मैं ने अपनी ताज़ा नज़्म
संदल की छाल पर लिख कर
उसे हदिया की
मेरी नज़्म के आख़िरी मिसरे तक आते आते
उस का दिल
आँखों से बह निकला
उस ने हाथ बढ़ा कर
रक़्स करते पेड़ का
सब से ख़ुश-गुलू परिंदा तोड़ कर
मेरी हथेली पर रखा
तो उस के पहलू में
ठाठें मारता जवाहरात का दरिया
मेरे कुशादा दामन में बहने लगा

मैं ने उस के दरिया को अपने चुल्लू में भरा
और फ़र्श पर थूक दिया
तब उस पर ये राज़ खुला
कि मैं ही वो शाइ'र हूँ जिस ने
नज़्म
और
तक़दीर
ईजाद की
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चौथी बार
बंगाल की गाती नदिया के किनारे
वो मुझ पर मुन्कशिफ़ होई
जहाँ सुनहरी मछलियाँ
नीले सुरों को बिलोती थीं
और रौशनी बाँटते पेड़ कलाम करते थे
उस की सहर फूँकती आँख ने
मुझे परिंदा बनने का हुक्म दिया
मैं उस के शाने की हरी शाख़ पर बैठ कर
अपना लहन ईजाद करने लगा

उस के हरे बदन का साया
सिवा नेज़े पे था
मैं ने उस के बदन के साए से
नर्म बिछौना तख़्लीक़ किया
और दुनिया के चेहरे पर थूक दिया

एक तवील नींद के बा'द
मैं ने ब्रह्मा की तरह आँख खोली
उस का घना साया
मेरे वजूद पर सिमट रहा था
उस के लज़ीज़ फलों में
मेरे लिए कड़वाहट रेंगने लगी

मैं ने अपना रेज़ा रेज़ा वजूद समेट कर
गठड़ी में बाँधा
क़ुतुब-नुमा को
ख़लीज बंगाल के ख़त पर रख कर
पाँव से ठोकर मारी
और हवा पर पाँव रखता हुआ
पाँचवें सम्त में आगे बढ़ गया
मैं ने अपने दिल को यक़ीन दिलाया
कि उस की सिसकियों का मुख़ातब
मैं नहीं था
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अशतार
ऐ आसमानों की मलिका
बादशाह तेरी दहलीज़ का दरबान है
लगाश
और
और
अर्ज में
तेरे नाम का सिक्का ढलता है
तेरी ज़ुल्फ़ें
ज़फ़र-मंद लश्कर का फरेरा हैं
और
चेहरा
सुब्ह के मशरिक़ का आसमान
फ़ुरात का चमकता पानी
तेरा आईना है
कुँवारियाँ
तेरे मुक़द्दस अहाते में
अपनी इस्मत का सुनहरा सिक्का
भेंट करने आती हैं

तो मीनारा-ए-बाबुल की बुलंदी से
बाँझ ज़मीन के नाम
बार-आवरी का संदेसा लिखती है
ऐ बहुत से नामों वाली
तेरी हथेलियाँ
तेरे तमव्वुज़ के हाथों की गर्मी से दहकती हैं
जिस के सफ़ेद मा'बद के सुनहरी कलस
मेरी आँखों को ख़ीरा करते हैं
तेरे मातम-दारों के आज़ा-ए-तनासुल
तेरी बारगाह का चढ़ावा हैं

अज़दहा
तेरे पाँव के तवाज़ुन पे मरता है
सफ़ेद शेर
तेरे सुनहरे रथ के घोड़े हैं
तेरे सर पर
पर-दार बेल का साया है
ऐ बार-आवरी की देवी
तेरे क़दमों की आहट से
मुर्दा ज़मीन
नाफ़ तक धड़क उठती है
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रात के आख़िरी पहर
मैं ने मुक़द्दस फ़्लाई की सरहद पे
पाँव रखा
उस के सब्ज़ पैरहन की ख़ुश्बू
मेरे इस्तिक़बाल के लिए मौजूद थी
मेरे ख़ाक-आलूद घुटनों ने
ज़मीन की खुशबू-दार नाफ़ को छुआ
तो मैं ने
अपना मल्बूस चाक कर डाला

वो पेपर्स के जंगलों के शुमाली किनारे पे बैठी
नील के पानियों को कात रही थी
उस ने मेरे ख़ाक-आलूद चेहरे को
नील का आईना दिखाया
हम मुतबर्रिक तेल के नमकीन चराग़ हथेलियों पे रखे
शहर-ए-पनाह की तरफ़ चल दिए
जहाँ देवता
बारयाबी के मुंतज़िर थे
हमारे क़दमों की आहट पा कर
मुक़द्दस फाटक के सुनहरे किवाड़
ज़मीन के आख़िरी किनारों तक खुल गए
और शहर की इत्र-बेज़ गलियाँ
हमारे तलवे चूमने लगीं

हमारे सुरों पे फैले
आसमान के सफ़ेद वरक़ पर
परिंदों के लिए हर्फ़ इम्तिनाअ लिखा था
हम ख़ुदावंद असर की ज़ियारत-गाह के नवाह में पहुँचे
तो देवता अपना मरक़द छोड़ कर
दहलीज़ से आ लगा
उस ने अपने दिल के छेद
नरसले की शाख़ पे कुंदा किए
और अपने ख़ूबसूरत लहन की सीढ़ी लगा कर
दिलों में उतर गया

सियाह मा'बद के सुनहरे कलस के साए में
ज़ाएरीन का मातमी जुलूस
दर-ओ-दीवार पे
नौहे तसतीर कर रहा था
मेरे पहलू में खड़ी
सब्ज़-फ़ाम औरत ने
मुझे देवताई मल्बूस हदिया किया
तो मैं हातिफ़ की बारगाह की दहलीज़ से लग कर
अपना क़सीदा
भेंट करने लगा
मुक़द्दस फ़्लाई की तारीक गलियाँ
नमकीन चराग़ों से भर गईं

मैं ने आख़िरी मिस्रा
हातिफ़ को दान किया
और सब्ज़ औरत की नीली आँखों में
तहसीन की नक़दी तलाश करने लगा
उस ने फ़स्लों पे करम करते हाथ से
हवा में तराज़ू बनाया
एक पलड़े में
मेरा हर्फ़-ए-हुनर रखा
और दूसरे में
अपने जमाल की नक़दी
उस के जमाल का सब्ज़ दरिया
मेरे दामन में बहने लगा
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छटी बार
वो दजला-ओ-फ़ुरात के दरमियान
मीनारा-ए-बाबुल के साए में
मुझ पर मुन्कशिफ़ होई
वो मुक़द्दस मीनार की सातवीं मंज़िल पर बैठी
आयत-दर-आयत बिखरे सितारों की
तिलावत पर मामूर थी

वो अशतार के मा'बद के शुमाल में साए बाँटते
बाग़ात-ए-मुअ'ल्लक़ा को
बार-आवरी की दुआ देने आई थी
उस का बे-नियाज़ जिस्म
उन हाथों की ना-रसाई को पहचानता था
जो उसे छूने की तमन्ना में
ज़ेर-ए-क़बा जल रहे थे

मैं ने दो लश्करों के दरमियान
अपने दादा के रजज़ में कलाम किया
जिस की मुट्ठी में क़बीले की आबरू थी
मेरे अक़ब में हरे जिस्मों वाली औरतें
आसमानी दफ़ की लय पर
मौत का तराना गाने लगीं

मेरा नजीबुत-तरफ़ैन घोड़ा
जिस का शजरा
मेरी उँगलियों की पोरों पर रक़म था
और जिसे मैं अपनी औलाद से भी अज़ीज़ जानता था
मैं ने उस की ज़ीन में बैठने से इंकार किया
और हवा पर पाँव रखता हुआ
दुश्मन के क़ल्ब-ए-लश्कर तक जा पहुँचा
मुझे देख कर
सूरमाओं की आँखें
नाफ़ तक फैल गईं
मैं ज़ेर-ए-लब
अपना शजरा-ए-नसब दोहरा रहा था

मैं ने अपने पाँव में भागते ख़ून को
महमेज़ दी
और अपनी ज़हर में बुझी तलवार
मैदान-ए-जंग के दरमियान गाड़ दी
जिस के मुरस्सा दस्ते पर
ज़ैतून का अख़ुवा फूट पड़ा
मैं अपनी गुज़िश्ता ज़िंदगी पर
कफ़-ए-अफ़्सोस मलने लगा
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मैं ने दजला-ओ-फ़ुरात के मशरिक़ में
एक क़दीम और रौशन पेड़ के नीचे
सज्दों का ख़िराज वसूल किया
और फलदार दरख़्तों से ढके
बाग़ में मुक़ीम हवा
जिसे मेरे और उस औरत के लिए
आरास्ता किया गया था
जिस की जन्म-भूमि
मेरी दाईं पस्ली थी

मैं ने पहली बार उसे
ज़िंदगी के पेड़ की सुनहरी शाख़ों के दरमियान
रेंगते देखा
वो
पेड़ की हिफ़ाज़त पे मामूर था
उस की कासनी आँखों में
क़ाइल कर लेने वाली
चमक थी

मैं ने अपनी भूक
इम्तिनाअ के फल पे तस्तीर की
तो मेरी आँखें
उस औरत के जिस्म के आर-पार
देखने लगीं
और
बाग़ के सब्ज़ पेड़
मेरे सर से
अपने साए की छतरियाँ समेटने लगे

मैं ने ज़िंदगी के पेड़ से लिपटे अज़दहे को
तीन बराबर हिस्सों में तक़्सीम किया
एक हिस्से से
अपने सर के लिए शिमला ईजाद किया
दूसरे हिस्से को
इज़ार-बंद बना कर कमर के गिर्द लपेटा
जो बच रहा
उसे अपनी साथी औरत के
बालों में गूँधा
और
बाग़ की जानिब पीठ कर ली

मेरी औरत ने मुझ से छुप कर
उस की सियाह जल्द से
अपनी नीली आँखों के लिए
सुर्मा ईजाद किया
और रात के पिछले पहर
अपने दूध से
उस की ज़ियाफ़त करने लगी
मैं ने मुक़द्दस पहाड़ की सब से बुलंद चोटी
उसे दान की
और अपनी पेशानी
ख़ाक पे रख दी
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एक शाम
उस ने मुझे अपनी पनाह-गाह से बाहर निकाला
और अपने सरसब्ज़ बाज़ुओं के शहतूत से
कश्ती तय्यार की
कश्ती जिस ने सब से पहले
दूसरा किनारा ईजाद किया था
आसमान पर चाँद
आधी मसाफ़त तय कर चुका
तो वो मुझे अपनी नई कश्ती में बिठा कर
समुंदर की तह में उतरने लगी
जहाँ उस ने
अपने ख़्वाब छुपा रक्खे थे

अगली शाम
वो मुझे एरोज़न के मा'बद में मिली
जिस के चारों ओर
सियाह जंगल की बाढ़ थी
उस मा'बद को सारा रोम
उम्मीद भरी नज़रों से देखता था

मैं
हातिफ़ के ग़ैब-दानों के लिए
भुना हवा गोश्त
खुशबू-दार मसाले
रोग़नियात
और
ज़ैतून की ताज़ा शाख़ थामे
मुक़द्दस अहाते में
पनाह-गुज़ीं हवा
उसे देख कर
हातिफ़ की ज़ियारत-गाह की दीवार
शक़ हो गई
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