Qaisar Haideri Dehlvi

Qaisar Haideri Dehlvi

@qaisar-haideri-dehlvi

Qaisar Haideri Dehlvi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Qaisar Haideri Dehlvi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
ब-आसानी कहीं शादाँ दिल-ए-नाशाद होता है
बड़ी बर्बादियों कै बा'द ये आबाद होता है

ठहर ऐ गर्दिश-ए-दौराँ वो लब जुम्बिश में आते हैं
सरापा गोश हो कर सुन कि क्या इरशाद होता है

दर-ए-साक़ी से आज़ाद-ए-दो-आलम उठ नहीं सकता
क़ुयूद-ए-मज़हब-ओ-मिल्लत से रिंद आज़ाद होता है

गुज़िश्ता हाल-ए-उल्फ़त क्या सुनोगे क्या सुनाऊँगा
ये क़िस्सा कुछ कहीं से कुछ कहीं से याद होता है

पयाम-ए-सद-मुसीबत जानता हूँ इक तबस्सुम को
लरज़ जाता हूँ जिस दिन ख़ुश दिल-ए-नाशाद होता है

क़फ़स की तितलियों उठो गले मिल लो लिपट जाओ
कि क़ैद-ए-ज़िंदगी से इक असीर आज़ाद होता है

कहाँ पहली सी 'क़ैसर' रस्म-ए-शागिर्दी-ओ-उस्तादी
जो इक मिस्रा भी कह लेता है अब उस्ताद होता है
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Qaisar Haideri Dehlvi
बस अब हम से दिल-ए-शोरीदा-सर देखा नहीं जाता
ये तड़पाना तड़पना रात भर देखा नहीं जाता

हमें तरकीब ही नज़ारा-ए-रुख़ की नहीं आती
कि वो हैं देखने की शय मगर देखा नहीं जाता

ख़ुदा जुरअत न दे मुझ को किसी दिन लब-कुशाई की
कि मुझ से नाला-ए-महरूम-असर देखा नहीं जाता

ख़ुदा ने शर्म रख ली ज़ौक़-ए-नज़ारा की महफ़िल में
न जाने क्या सितम होता अगर देखा नहीं जाता

किसी गोशे में दिल के ढूँड उस के हुस्न-ए-यकजा को
वो शम्अ'-ए-शौक़ ले कर दर-ब-दर देखा नहीं जाता

बड़ी मुद्दत से पैदा कर रहा हूँ शौक़-ए-नज़्ज़ारा
ब-इत्मीनान-ए-दिल अब भी उधर देखा नहीं जाता

नहीं मालूम 'क़ैसर' इश्क़ ही इतना बुरा क्यों है
मेरी सम्त उन से जब कि इक नज़र देखा नहीं जाता
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Qaisar Haideri Dehlvi
तेरी बे-रुख़ी मिरी मौत थी हुआ इल्तिफ़ात कभी कभी
तिरे इल्तिफ़ात की ख़ैर हो कि मिली हयात कभी कभी

रह-ए-आरज़ू में कहीं कहीं मुझे रोक देते हैं हादसे
ग़म-ए-इश्क़ है मिरा मुस्तक़िल ग़म-ए-काएनात कभी कभी

मिरी जुम्बिश-ए-लब-ए-ग़म-ज़दा जो तिरे मिज़ाज पे बार है
मिरे आंसुओं की ज़बाँ से सुन ग़म-ए-दिल की बात कभी कभी

नहीं एक हाल में कुछ मज़ा करो चाशनी भी मुझे अता
मिरी ज़िंदगी के सुकूत में नई वारदात कभी कभी

वो जहाँ कहीं नज़र आ गए बड़ा इत्तिफ़ाक़ हसीं रहा
मुझे तीरगी थी नसीब में मिली चाँद रात कभी कभी

मैं ज़मीं-नवर्द था इश्क़ में मगर ऐसे मोड़ भी आ गए
मह-ओ-मेहर तक मुझे ले गया सफ़र-ए-हयात कभी कभी

तिरा 'क़ैसर' अम्न-ओ-सुकूँ में भी न बचा फ़रेब-ए-जमाल से
तिरी इक निगाह से खुल गया दर-ए-हादसात कभी कभी
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Qaisar Haideri Dehlvi
हसीन और उस पे ख़ुद-बीं वो सितम-गर यूँ भी है यूँ भी
नज़ारा क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत से बाहर यूँ भी है यूँ भी

जौ ये बिस्मिल हया से है तो वो मजरूह देखे से
निगाह-ए-नाज़ उस क़ातिल की ख़ंजर यूँ भी है यूँ भी

जबीं उस दर पे है वो दर है ऊँचा अर्श-ए-आज़म से
बुलंद औज-ए-सुरय्या से मुक़द्दर यूँ भी है यूँ भी

इधर वो मुझ से बरहम हैं उधर मायूस-ए-नज़्ज़ारा
कि मेरी उम्र का लबरेज़ साग़र यूँ भी है यूँ भी

अक़ीदत तुझ से भी है बैअ'त-ए-दस्त-ए-सुबू भी है
जो साक़ी रिंद है हक़दार-ए-कौसर यूँ भी है यूँ भी

मिरी मंज़िल का पहला नाम दुनिया दूसरा दीं है
कि राह-ए-इश्क़ मेरे हक़ मैं बेहतर यूँ भी है यूँ भी

मैं ख़्वाहिर-ज़ादा-ए-हैदर भी हूँ शागिर्द-ए-हैदर भी
मिरा मुल्क-ए-सुख़न पे क़ब्ज़ा 'क़ैसर' यूँ भी है यूँ भी
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Qaisar Haideri Dehlvi
जो मुमकिन हो तो सोज़-ए-शम'अ परवाने में रख देना
अब इस अफ़्साने का उन्वान अफ़्साने में रख देना

बड़ी काफ़िर कशिश ईमाँ में है ऐ आज़िम-ए-का'बा
न ले जाना दिल अपने साथ बुत-ख़ाने में रख देना

मिरा दिल भी शराब-ए-इश्क़ से लबरेज़ है साक़ी
ये बोतल भी उड़ा कर काग मयख़ाने में रख देना

अभी आईना-ए-तस्वीर अभी हुश्यार अभी ग़ाफ़िल
तुम्हें आता है हर अंदाज़ दीवाने में रख देना

मिरा पैमाना-ए-हस्ती अगर साक़ी छलक जाए
मिरे हिस्से का ख़ाली जाम मयख़ाने में रख देना

शरीक-ए-मय जनाब-ए-शैख़ भी हो जाएँगे साक़ी
ज़रा ज़र्फ़-ए-वज़ू का ढंग पैमाने में रख देना

ये क्या दस्त-ए-अजल को काम सौंपा है मशिय्यत ने
चमन से तोड़ना फूल और वीराने में रख देना

वफ़ूर-ए-यास में 'क़ैसर' चले हैं दिल से चंद आँसू
ये लाशें हैं इन्हें आँखों के ख़स-ख़ाने में रख देना
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Qaisar Haideri Dehlvi
किसी का हाथ दामन पर किसी का सर गरेबाँ में
ये दीवाने भी गुल-छर्रे उड़ाते हैं बयाबाँ में

समा कर रह गया हर उन का जल्वा क़ल्ब-ए-सोज़ाँ में
कहाँ से इतनी वुसअ'त आ गई इस तंग-दामाँ में

सलीक़ा ख़ाक उड़ाने का बड़ी मुश्किल से आता है
बगूले सर पटक कर रह गए आख़िर बयाबाँ में

हँसी कलियों के लब पर है क़बा-ए-गुल के टुकड़े हैं
सभी पर छा गई दीवानगी अब के गुलिस्ताँ में

क़रीब आया ज़माना जब भी अहद-ए-गुल की रुख़्सत का
उलझ कर रह गया दस्त-ए-जुनूँ तार-ए-गरेबाँ में

सुवैदा बुत-कदा है दिल हरम नज़रें पुजारी हैं
यहाँ तफ़रीक़ भी कुछ है तो ये है कुफ़्र-ओ-ईमाँ में

इक़ामत के लिए क्या वुसअ'त-ए-कौनैन कुछ कम थी
अबस अंगड़ाई ली तुम ने दिल-ए-नज़्ज़ारा-सामाँ में

जो आँखों से लगाए गुल तो काँटे रख लिए दिल में
मुझे दोनों ही से 'क़ैसर' इलाक़ा था गुलिस्ताँ में
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