दिलों से बढ़ के जहान भर में कोई भी मंदिर नहीं है शायद
है ज़र-परस्ती सो अब दिलों में कोई मुहाजिर नहीं है शायद
ख़ुशी अगरचे मेरी तरफ़ जो भली नज़र से भी देख ले तो
नज़र चुरा के मैं सोचता हूँ ये मेरी ख़ातिर नहीं है शायद
मेरी ही आँखे, मेरे ही लब हैं मगर मैं इसमें ज़रा-सा ख़ुश हूँ
बस इसलिए ही ये चेहरा मेरा, नहीं मुसव्विर! नहीं है शायद
ख़याल में भी रजज़ मुसम्मन, मफ़ाइलातुन ही सोचता है
ये मेरे अंदर अदीब है जो ये अच्छा शाइर नहीं है शायद
कुछ इक शिक़ायत लिखा है मैंने प' तर्क अब तक नहीं लिखा है
है इसका मतलब ए मेरे क़ासिद ये ख़त भी आख़िर नहीं है शायद
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