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Mauj mein hai banjara - Shakeel Jamali

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“अजब सादा सा लड़का था”
अजब सादा-सा लड़का था
जो मेरे साथ पढ़ता था
उसे ग़म भी थे लेकिन वो
सदा हँसता ही रहता था

किसी के साथ भी जाऊँ
कभी रोका नहीं उसने
उसे मैं दोष जो भी दूँ
कभी टोका नहीं उसने

सदा बस प्यार की बातें
किया करता था वो मुझसे
मेरे कपड़े हटा कर तिल
कभी देखा नहीं उसने

बहुत इज़्ज़त मुझे देता
अदब से बात करता था
बयाँ मैं कर नहीं सकती
वो मुझ पे कितना मरता था

मुझे वो एक माँ जैसे
सलीक़े सब सिखाता था
दुपट्टा इस तरह ओढ़ो
मुझे ये भी बताता था

शरारत में अगर होता
मेरी चीज़ें छुपा देता
अगर मैं रूठने लगती
मुझे सीने लगा लेता

मेरे बालों को सुलझा कर
मेरी चोटी बनाता था
किसी दादी के जैसे वो
कहानी भी सुनाता था

अजब सादा-सा लड़का था
जो मेरे साथ पढ़ता था
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Raja Singh 'Kaabil'
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माँ
मेरी ख़्वाहिश मेरी माता मेरा जीवन मेरी माता
अगर आया हूँ दुनिया में वो ज़रिया हैं मेरी माता

जो मेरी बात करती हैं ज़माने से भी लड़ जाऍं
मुझे दर्पण दिखाती हैं ग़लत क्या है सही क्या है

मुझे ग़ुस्सा दिखाती हैं मुझे पुचकारती भी हैं
मगर दिल की वो सच्ची हैं वो जग में सबसे अच्छी हैं

मेरे अरमान के ख़ातिर वो आधी पेट खाती है
वो ख़ुद का ग़म छुपाती हैं मुझे हँस के दिखाती हैं

उन्हें उम्मीद है मुझसे करूँगा नाम मैं रौशन
बनूँगा शान मैं उनका उन्हीं के राह पे चलकर

कभी जो टूट जाता हूँ सफ़र में छूट जाता हूँ
वही इक हाथ देती हैं मुझे गिरने नहीं देती

वो कहती हैं मेरे बेटे करो मेहनत रखो हिम्मत
करो कोशिश सदा हरदम अभी उम्मीद मत हारो

ज़रा सी आँधियाँ हैं ये तुम्हारा क्या बिगाड़ेंगी
यक़ीनन चंद लम्हों में तुम्हें मंज़िल बुलाएगी

वही जो दूर है तुमसे वही फिर पास आएँगे
जो रिश्ता तोड़ बैठे हैं वही अपना बुलाएँगे

समय का खेल है सब कुछ समय ही सब बताएगा
क़दम रोको नहीं इक दिन यही मंज़िल दिलाएगा

भला कैसे बता रंजन ग़लत का रास्ता चुनता
हाँ माँ के आँख में आँसू भला क्या देख सकता है
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ABHISHEK RANJAN
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आप कहते कि उन्नति हुई है
फैलती जा रही भुखमरी है
आप कहते कि उन्नति हुई है

दौर मँहगाइयों का बढ़ा है
मौत का भी बिगुल बेसुरा है
आर्थिक युद्ध ऐसा अनोखा
हर तरफ़ दिख रहा सिर्फ़ धोखा
आग सीमाओं पर भी लगी है
आप कहते कि उन्नति हुई है

रोग बढ़कर मिटाता जनों को
बन्द भी है सताता जनों को
है बुरे हाल में जन सुरक्षा
कम हुई राजनीतिक तितिक्षा
ऑक्सीजन तलक घट रही है
आप कहते कि उन्नति हुई है

रोमियो के विरोधी बने तुम
लैला मजनूॅं के रोधी बने तुम
प्रेम प्रतिबंध तुमने लगाया
कृष्ण राधा तलक को रुलाया
इतना प्रतिबन्ध कब लाज़िमी है
आप कहते कि उन्नति हुई है

नोट-बन्दी ने जनगण हिलाया
कालाधन लौट फिर भी न आया
आज नीरव व माल्या अडानी
लूटते देश का माल पानी
झोपडों में ग़रीबी पड़ी है
आप कहते कि उन्नति हुई है

सब किसानों जवानों दुकानों
टपरियों गाँव के घर मकानों
टैक्स भरना बहुत है ज़रूरी
है विकासों में अब कुछ ही दूरी
देवी उत्पाद-शुल्का खड़ी है
आप कहते कि उन्नति हुई है

दोगुनी आय पाते किसानों
वस्तु उत्पाद देती दुकानों
टैक्स भरते हुए शौर्यवानों
और तलते पकौड़े जवानों
सबने ख़ुद ही चुनी बे-बसी है
आप कहते कि उन्नति हुई है
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Nityanand Vajpayee
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'सुनो! मैं घर वापस आ रहा हूँ'
अच्छा! तुम्हें एक ख़बर सुना रहा हूँ
सुनो! मैं घर वापस आ रहा हूँ
पूरे नौ दिनों की छुट्टियाँ मिली हैं
मगर छुट्टियाँ तो महज़ एक बहाना है
अस्ल में तो तुमसे मिलना चाहता हूँ
तुम्हें रू-ब-रू देखना चाहता हूँ
इक दफ़ा फिर बाहों में भरना चाहता हूँ
अस्ल में मैं थोड़ा-सा थक गया हूँ
तुम्हारी गोद में कुछ देर सोना चाहता हूँ
सफ़र की धूप में बहुत जल चुका हूँ
ज़रा ज़ुल्फ़ों की पनाह में रहना चाहता हूँ
अंजान राहों पे बड़ा भटक लिया हूँ
तुम्हारे दिल के मकाँ में ठहरना चाहता हूँ
बस नौ ही दिन मिले हैं मुझे मरियम
हर पल तुम्हारे साथ गुज़ारना चाहता हूँ

और चाहता हूँ कि मेरा इंतिज़ार करना
ठीक वैसे ही उन हसीन शामों की तरह
उसी सफ़ेद सलवार और कुर्ती में सँवरना
और गले में लहराता वही सुर्ख़ दुपट्टा
अपनी छत की मुंडेर पर तुम खड़ी रहना
गुज़रुँगा जब मैं गली से तुम्हारी
तो रोकना न ख़ुद को तुम मुस्कुराने से
मगर इस बार फेर लूँगा नज़रें मैं तुमसे
तुम भी रोक लेना ख़ुद को क़दम बढ़ाने से
है क़सम हम दोनों को उस रिश्ते की
जिसका वजूद कोई नाम कोई हैसियत नहीं
मैंने ख़त में ऊपर लिक्खा है जो कुछ भी
उन बातों की मरियम अब कोई अहमियत नहीं
सोचो! फिर तुम्हें वो बातें क्यूँ बता रहा हूँ
सुनो! मैं घर वापस आ रहा हूँ
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Rehaan
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"बस फिर से सड़क पर दौड़ चली है"
बस फिर से सड़क पर दौड़ चली है
फिर तेरे शहर को आ रहा हूँ मैं
कम हो रही हर एक मील की दूरी पे
अपने दिल की धड़कनें बढ़ा रहा हूँ मैं
दिन गुज़रा है आज फिर वैसा ही थकान भरा
पर ख़ुद को अभी बहुत अम्लान पा रहा हँ मैं
छाया है आकाश में अँधेरा घना अमावस का
ख़यालों में तेरे रूप-सा चाँद बसा रहा हूँ मैं
मानकर साक्षी पीछे छूटते हर एक गाँव को
अतीत की सभी रंजिशों से कसक मिटा रहा हूँ मैं
रात कुछ कट चुकी है कुछ ढलनी अब भी बाक़ी है
सवेरा जल्द होने की उम्मीद लगा रहा हूँ मैं
बस फिर से सड़क पर दौड़ चली है
फिर तेरे शहर को आ रहा हूँ मैं

बस फिर से सड़क पर दौड़ चली है
फिर तेरे शहर से खाली हाथ जा रहा हूँ मैं
बढ़ रही हर एक मील की दूरी पे
तेरे किए वो सभी वायदे भुला रहा हूँ मैं
रात तेरे ख़्वाबों से नींद मुकम्मल शादाब हुई
जाने फिर क्यूँ ख़ुद को इतना क्लान्त पा रहा हूँ मैं
मालूम है चाँद को अब मोहब्बत नहीं चकोर से
फिर भी बादलों को ही दोषी ठहरा रहा हूॅं मैं
कोशिशों में कोई कमी शायद मुझसे ही रह गई होगी
तुझसे नाराज़ इस दिल को हर बार यही समझा रहा हूँ मैं
चुभने लगे हैं अब ये फ़ुज़ूल के उजाले आँखों में
अँधेरा जल्द होने की अरदास लगा रहा हूँ मैं
बस फिर से सड़क पर दौड़ चली है
फिर तेरे शहर से ख़ाली हाथ जा रहा हूँ मैं
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Rehaan
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“बेटी बचाइए”
बेटी से ये जहान है बेटी बचाइए
माँ बाप की ये जान है बेटी बचाइए

ये सारी काइनात बदौलत इसी से है
सारे जहाँ में फैली मोहब्बत इसी से है
बेटी चमेली बनके चमन में महक रही
बातों से यूँ लगे है कि बुलबुल चहक रही
बेटी से ख़ानदान है बेटी बचाइए

बेटी कहीं पे माँ कही बहना के रूप में
पत्नी बहु ये बनके निकलती है धूप में
हर काम में हैं हाथ बटातीं ये बेटियाँ
हर रूप में हैं प्यार लुटातीं ये बेटियाँ
ये घर की आन बान है बेटी बचाइए

बेटी को मारिए न बहू को जलाइए
बेटी बहन किसी कि हो इज़्ज़त बचाइए
बनकर दुल्हन जो आई तो ख़ुशियाँ भी लाएगी
माँ बन के एक रोज़ ये ममता लुटाएगी
ये दो कुलों की शान है बेटी बचाइए
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SALIM RAZA REWA
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'ऐसा क्यूँ होता है'
ऐसा क्यूँ होता है जाता है कोई तो
लौट के फिर न वो आता दुबारा
ऐसा क्यूँ होता है चंदा के जाने से
लगता फ़लक ये सूना सारा

दुनिया ये प्यार की दुश्मन
इससे न पार पाता है दिल
ऐसा क्यूँ होता है मौला
अपनों से हार जाता है दिल
ऐसा क्यूँ होता है
दिल जो बिछड़ते हैं दिन न गुज़रते हैं
शामें न कटती हैं रातें न छटती हैं
लगता नहीं कहीं दिल ये बेचारा
ऐसा क्यूँ होता है रहती हैं आँखें नम
हो नहीं पाता है गुज़ारा

वादे किए थे उसने जो
वादे थे उसके सारे झूठे
जितना उसे था कल चाहा
ख़ुद से हैं आज उतने रूठे
ऐसा क्यूँ होता है
भूलना चाहूँ तो दिल को मनाऊँ तो
दिल न समझता है मुझसे उलझता है
करता है उसपे ही बस ये इशारा
ऐसा क्यूँ होता है जब भी यूँ होता है
दिल ये हो जाता बे-सहारा
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Rehaan
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'इक बात'
इक बात कि तुमसे कुछ बात करनी है
इक बात कि फिर इक मुलाक़ात करनी है
इक बात कि तुम्हें इक नज़्म सुनानी है
पुरानी तुमसे कुछ रंजिशें बतानी हैं
इक बात कि वापस सब याद दिलाना है
तुमसे मिला वो हर इक ज़ख़्म गिनाना है
इक बात कि तुमसे कुछ सवाल करने हैं
तुम्हारी आँखों से कुछ जवाब पढ़ने हैं
इक बात कि तुमने क्यूँ साथ छोड़ दिया
बीच सफ़र में मेरा हाथ छोड़ दिया
इक बात कि इस-क़दर क्यूँ किया अन-देखा
तुमने इक बार भी न पलट कर देखा
इक बात कि तुमने क्यूँ दिल ये तोड़ा
क्यूँ मुझसे अचानक यूँ मुँह मोड़ा
इक बात कि तुमसे अब बात नहीं होती
दिन गुज़रतें नहीं अब रात नहीं होती
इक बात कि तुम बिन ये दिल बेहाल है
तुम नहीं तो अब कुछ ऐसा हाल है

जैसे बिन चाँद-तारों की रात
जैसे दूल्हे बिना बारात
जैसे बिन गद्दी के राजा
जैसे कफ़न बिना जनाज़ा
जैसे बिन हिन्दी के हिन्द
जैसे धूप बिना आलिन्द
जैसे बिन साहिल के नदी
जैसे इतिहास बिना कोई सदी
जैसे बिन धड़कन के दिल
जैसे संगीत बिना महफ़िल
जैसे बिन प्यास के सजल
जैसे बहर बिना कोई ग़ज़ल
जैसे बिन मिलन के प्रीत
जैसे धुन बिना कोई गीत
जैसे बिन सिया के राम
जैसे राधा बिना घनश्याम
जैसे बिन मदन के रति
जैसे शिव बिना पार्वती
जैसे बिन पानी के मीन
जैसे फ़सल बिना ज़मीन
जैसे बिन बारिश के मोर
जैसे सूई बिना कोई डोर
जैसे बिन औषधि के चोट
जैसे लफ़्ज़ बिना ये होंठ

इक बात कि लबों पे कुछ बोल सजाने हैं
इक बात कि कुछ पल फिर संग बिताने हैं
इक बात कि तुम्हीं को फिर ख़्वाबों में तकना है
दिन-रात बस तुम्हें ही ख़यालों में रखना है
इक बात कि फिर तुम्हें सोच मुस्कुराना है
हर एक चेहरे में फिर तुम्हीं को पाना है
इक बात कि तुमसे इक इनायत लेनी है
सात फेरों की तुमसे इजाज़त लेनी है
इक बात कि तुमसे फिर दिल लगाना है
तुम्हें फिर से अपना ख़ुदा बनाना है
इक बात कि तुमसे सब शिकवे मिटाने हैं
फिर से तुम पर दो जहाँ लुटाने हैं
इक बात कि तुम्हारा फिर दिल धड़काना है
मुझे फिर तुम्हारे सपनों में आना है
इक बात कि तुम्हें दिल के जज़्बात बताने हैं
तुम्हारे साथ ही सातों जनम बिताने हैं
इक बात कि मिलने आओ गर तुम तो
साथ इक जनम भी निभाओ गर तुम तो

शीशे का इक आशियाँ बना दूँ
चादर फ़र्श पे मख़मली बिछा दूँ
आलम से बहारें चोरी कर लूँ
दोस्ती तितलियों से पूरी कर लूँ
मद्धम-सी कोई धुन चला दूँ
कलियाँ चारों ओर खिला दूँ
नदियों की चाल आहिस्ता कर दूँ
मुकम्मल साहिलों का रिश्ता कर दूँ
फ़िज़ाओं में ढेरों इत्र मिला दूँ
ख़ुशबूएँ हर तरफ़ फैला दूँ
शाम को देर तक ढलने न दूँ
मन पंछियों का मचलने न दूँ
बेवक़्त शबनम की बूँदें बरसा दूँ
पत्तियों के दिल की प्यास बुझा दूँ
हो अँधेरा तो शमा रौशन कर दूँ
तेज़ परिंदों की धड़कन कर दूँ
चाँद को ज़मीं पे बुला दूँ
महफ़िल फूलों से सजा दूँ
आसमाँ से सितारें हज़ार ले लूँ
बारिश घटाओं से उधार ले लूँ
मौसम में नमी भर दूँ
चंचल-शीतल हवाएँ कर दूँ
फ़लक में सातों रंग घोल दूँ
चौखटें जन्नत की सारी खोल दूँ

इक बात कि तुम्हारे नाम जन्नतें सजानी हैं
इक बात कि तुम्हें अनगिनत तारीफ़ें सुनानी हैं
इक बात कि तुम्हारी बातों में नशा है
ज़ुल्फ़ें कि जैसे कोई काली घटा है
इक बात कि कितना मासूम है चेहरा
आँखों में छुपा हो राज़ कोई गहरा
इक बात कि कोई भी होश खो जाए
चाँद भी देखे तो दीवाना हो जाए
इक बात कि तुम्हें झुमकें पहनाने हैं
नाज़ुक-से हाथों पर कंगन चढ़ाने हैं
इक बात कि पैरों में पायलें बाँधनी हैं
अब इश्क़ की सारी दहलीज़ें लाँघनी हैं
इक बात कि तुम्हारी पलकों को चूमना है
संग तुम्हारे फिर से बारिशों में झूमना है
इक बात कि तुम्हें भरना है बाहों में
घंटों फिर यूँ ही रखना है निगाहों में
इक बात कि तुमसे फिर बात करनी है
आओ कि फिर इक मुलाक़ात करनी है
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Rehaan
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"इक शख़्स"
थोड़ा बेचैन है और आँखों में भी पानी है
देखो इस शख़्स को भी कोई परेशानी है

जो पसंद आता था अब उससे ही डर जाता है
जानते हो ये किसी नाम से घबराता है

इक इसी नाम ने बर्बाद किया था उसको
आज बस इसलिए ही याद किया था उसको

नींद फिर कैसे लगे जाए भी क्यूॅं सोने वो
याद जो कर लिया तो लग गया है रोने वो

रात भर रोएगा अब सुर्ख़ पड़े नैन से वो
माँ तो समझेगी कि सोया है बड़े चैन से वो

माँ की ख़ातिर ही तो मुॅंह छुप गया था चादर से
जाने पर किस लिए अब उठ गया है बिस्तर से

यानी अब ऐसा कोई काम करेगा लड़का
अपने घर वालों को बदनाम करेगा लड़का

काम जो करना है उस काम से घबराया है
शाम को इसलिए मय-ख़ाने से हो आया है

ज़िक्र कर आया था इस काम का मय-ख़ाने में
कोई शय खोज रहा इसलिए तह-ख़ाने में

किसी आवाज़ बिना होगा तमाशा ऐसा
शोर करता नहीं हथियार तलाशा ऐसा

ख़ुश तो है हाथ में रस्सी लिए मन अब उसका
काँपने लग गया है पर ये बदन अब उसका

मुस्कुराकर मगर कहता है कि सुन बात मिरी
अलविदा हँस के ही कर आख़िरी है रात मिरी

यानी अब ज़िंदगी का आख़िरी दम आ गया है
आगे बस मौत ही है ऐसा क़दम आ गया है

कँपकँपाते लबों से नाम वही जाप रहा
आँखें छत देख रही हाथ गला नाप रहा

नाम अब उसके गले में ही अटक जाएगा
देखते देखते वो छत से लटक जाएगा

क्यूॅं भला इतना है अफ़सुर्दा वो भी मेरी तरह
होना क्यूॅं चाहता है मुर्दा वो भी मेरी तरह

मुझ सा क्यूॅं दिख रहा है मुझको हर इक मायने में
मुझको ये शख़्स ही क्यूॅं दिख रहा है आइने में
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Bhuwan Singh
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ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

ख़ुद को गर्दिश में मिलाने पे तुली है दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

रोज़ कटते हैं हज़ारों ही शजर हरियाले
आदमी रोक न पाया वो इरादे काले
सिर्फ़ पैसों को कमाने पे तुली है दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

कितने नादान यहाँ लोग हुए जाते हैं
दूध पीकर के वो गउओं का उन्हें खाते हैं
अपनी माँ तक को नशाने पे तुली है दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

कारख़ानों के धुँए घोंट रहे दम पे दम
सड़ते मलबों से पटी नदियाँ हुईं हैं कम-कम
मौत सीने  से  लगाने  पे  तुली  है  दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

मूल्य गिरते ही चले जाते हैं नैतिकता के
माँ-पिता बंधु बहिन बढ़ती अमानुषता के
सब की अस्मत ही लुटाने पे तुली है दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

अब तो फ़ैशन का ज़माना ये बताते हैं लोग
मरमरी जिस्म खुलेआम दिखाते हैं लोग
तन से कपड़ों  को हटाने पे तुली है दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया
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Nityanand Vajpayee
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“वसीयत“
हसीन लकड़ी मिरी मुहब्बत
मैं अब से पहले
ख़ुतूत लिखता रहा हूँ तुझको
तुझे पता है
मैं अब से पहले सभी ख़तों में
ख़ुशी के अफ़्साने लिख रहा था
हसीन लकड़ी मिरी मुहब्बत
मगर ज़माना बदल गया अब
ये ख़त जो मैंने तुझे लिखा है
पुराने वाले ख़तों के जैसा ये ख़त नहीं है
तमाम ख़त से ये ख़त जुदा है
हसीन लकड़ी मिरी मुहब्बत
ये ख़त नहीं है
ये ख़त की सूरत में मैंने क़ासिद के हाथ तुझको
वसीयतें हैं जो मेरी मैंने वो सब की सब लिख के भेज दी हैं
हसीन लकड़ी मिरी मुहब्बत
मिरी गुज़ारिश है अब ये तुझसे
वसीयतें जो लिखी हैं मैंने
हर इक वसीयत को मेरी पढ़ना
हसीन लकड़ी मिरी मुहब्बत
मिरे जनाज़े पे जब भी आना
कफ़न को रुख़ से मिरे हटाना
ग़मों की मारी हसीन लकड़ी
मिरी मुहब्बत ख़्याल रखना
मिरी वसीयत का मान रखना
लिपट के मय्यत से जाँ न खोना
जुदाई में मत निढाल होना
हसीन आँखों से ख़ूँ न रोना
लहू से दामन को मत भिगोना
तड़प तड़प के न जान खोना
ग़मों की मारी हसीन लकड़ी
मिरी मुहब्बत ख़्याल रखना
मिरी वसीयत का मान रखना
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Shajar Abbas
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ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

किस को गर्दिश में मिलाने पे तुली है दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

रोज़ कटते हैं हज़ारों ही शजर हरियाले
आदमी रोक न पाया वो इरादे काले
सिर्फ़ पैसों को कमाने पे तुली है दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

कितने नादान यहाँ लोग हुए जाते हैं
दूध पीकर के वो गउओं का उन्हें खाते हैं
अपनी माँ तक को नशाने पे तुली है दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया


कारख़ानों के धुँए घोंट रहे दम पे दम
सड़ते मलबों से पटी नदियाँ हुईं हैं कम-कम
मौत सीने  से  लगाने  पे  तुली  है  दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

मूल्य गिरते ही चले जाते हैं नैतिकता के
माँ-पिता बंधु बहिन बढ़ती अमानुसता के
सब की अस्मत ही लुटाने पे तुली है दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया

अब तो फ़ैशन का ज़माना ये बताते हैं लोग
मरमरी जिस्म खुलेआम दिखाते हैं लोग
तन से कपड़ों  को हटाने पे तुली है दुनिया
ख़ुद-ब-ख़ुद मिट के दिखाने पे तुली है दुनिया
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Nityanand Vajpayee
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“अधूरी प्यास”
आदत नहीं जाती मिरी
मैं देखता हूॅं तेरे घर को आज भी
है एक आदत मुझमें अब भी बाक़ी सी
कुछ देर तकता हूॅं चले जाता हूॅं फिर
सब पूछते
क्या है भला दिल में तिरे
ख़ामोश आता जाता है
क्यूँ हर दफ़ा तस्वीर देखा करता है
वो जा चुकी है फिर भी ये दिल मानता
बिल्कुल नहीं
क्यूँ चैन भी पड़ता नहीं
आख़िर करूॅं तो क्या करूॅं
ख़ुद से ही बातें करता हूॅं
वो लम्स वो लम्हें मुझे अब भी हैं याद
बरसात का मौसम था और
तू हाथ मेरा थाम के चलती गई
बिन मुस्कुराए बात करते ही नहीं थे हम कभी
फिर कैसा मेरे वक़्त ने
ये खेल रचकर बे-सबब
क्यूँ ग़म दिया
अब उलझा ही रहता हूॅं मैं
रेशम की कोई डोर सा
है एक आदत जो नहीं जाएगी अब
है इक अधूरी प्यास कुछ
आसानी से बुझने नहीं वाली मिरी
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Anuraag 'Anuj' Pathak
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