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आग अपने ही लगा सकते हैं
ग़ैर तो सिर्फ़ हवा देते हैं
रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
हम याद-ए-ख़ुदा करते हैं कर ले न ख़ुदा याद
पूरी कायनात में एक कातिल बीमारी की हवा हो गई
वक्त ने कैसा सितम ढाया कि दूरियाँ ही दवा हो गयीं
मिरी रूह की हक़ीक़त मिरे आँसुओं से पूछो
मिरा मज्लिसी तबस्सुम मिरा तर्जुमाँ नहीं है
हम अम्न चाहते हैं मगर ज़ुल्म के ख़िलाफ़
गर जंग लाज़मी है तो फिर जंग ही सही
गुनाहगार को इतना पता तो होता है
जहाँ कोई नहीं होता ख़ुदा तो होता है
मैं तुझे बज़्म में लाऊँगा मेरी जान मगर
लोग जब दूसरे चेहरों पे फ़िदा हो जाएँ
ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम
विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं
लोग जिस हाल में मरने की दुआ करते हैं
मैं ने उस हाल में जीने की क़सम खाई है
तुम मिरी आँख के तेवर न भुला पाओगे
अन-कही बात को समझोगे तो याद आऊँगा
नश्शा-हा शादाब-ए-रंग-ओ-साज़-हा मस्त-ए-तरब
शीशा-ए-मय सर्व-ए-सब्ज़-ए-जू-ए-बार-ए-नग़्मा है
अपने हाथों की लकीरें न बदलने पाई
ख़ुश-नसीबों से बहुत हाथ मिलाए मैंने
मुझसे जो मुस्कुरा के मिला हो गया उदास
ताज़ा हवा की खिड़कियों को जंग लग गई
दूर हूं लेकिन बता सकता हूं उन की बज़्म में
क्या हुआ क्या हो रहा है और क्या होने को है
सफ़र हालाँकि तेरे साथ अच्छा चल रहा है
बराबर से मगर एक और रास्ता चल रहा है
ख़ुदा ने चाहा तो सब इंतिज़ाम कर देंगे
ग़ज़ल पे आए तो मतले में काम कर देंगे
ख़ुदा के लिए अब न उससे मिलो तुम
तुम्हें अब हमारी जलन की क़सम है
आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा
घर के बाहर ढूँढता रहता हूँ दुनिया
घर के अंदर दुनिया-दारी रहती है
पारा-ए-दिल है वतन की सरज़मीं मुश्किल ये है
शहर को वीरान या इस दिल को वीराना कहें