रोज़ मैं सोचता आएगा कल सुकून
जो कि बन जाएगा इक मुसलसल सुकून
दर-ब-दर मैं सुकूँ की तलब में फिरा
और सोचा कि शायद हो जंगल,सुकून
हाथ रख शाने पे,कुछ दिलासा भी दे
इससे मुमकिन है आ जाए कुछ पल सुकून
रात ये कौन आकर मुझे कह गया
ध्यान से सुन,मिलेगा तुझे कल सुकून
बोलकर झूठ वो टालता है मुझे
मुझको कर दे ना आखिर ये पागल,सुकून
शानो-शौक़त से रहता था वो,और अब
माँगता है कि मिल जाए दो पल सुकून
ज़ेरे निगरानी बच्चे बड़े होते जब
तो रहे वालिदैं को भी हर पल सुकून
जिस भी औक़ात तू मेरी बाहों में हो
मैं कहूँ इसको ही तो मुक़म्मल सुकून
मुन्तज़िर आज तक हूँ की दीदार हो
हो पिया-दीद तो आए फ़ैसल,सुकून
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