Akhtar Husain Shaafi

Akhtar Husain Shaafi

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Akhtar Husain Shaafi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Akhtar Husain Shaafi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
हम दर्द-ए-निहाँ को महफ़िल में रूस्वा-ए-हिकायत कर न सके
कहने को बहुत कुछ था लेकिन कुछ उन से ख़िताबत कर न सके

ऐ हुस्न ज़रा दम भर के लिए कुछ शोख़ तुझे भी होना था
दो दिल थे फ़िदा आपस में मगर इज़हार-ए-मोहब्बत कर न सके

गुज़रे हुए लम्हों की यादें अब शौक़-ए-वफ़ा से कहती हैं
जो शय थी क़रीब-ए-क़ल्ब-ओ-जिगर उस शय से रिफ़ाक़त कर न सके

हर शौक़ बढ़ा कर सपने में ज़हमत तो उठाई राहों की
पहुँचे तो दर-ए-का'बा पे मगर का'बे की ज़ियारत कर न सके

सीने में ख़लिश है फ़ुर्क़त की बेताब तमन्ना है मेरी
जो हम से मोहब्बत करते थे हम उन पे इनायत कर न सके

चंचल भी वो थे चालाक भी थे पर शर्म-ओ-हया भी ऐसी थी
हम मन के पुराने पापी भी कुछ उन से शरारत कर न सके

वाइज़ ने कहा था ज़ब्त करो जज़्बात-ए-मोहब्बत को लेकिन
हम उस की हिदायत पर चल कर इस दिल की हिफ़ाज़त कर न सके

दुनिया के ग़मों का ख़ौफ़ नहीं बेबाक मुसाफ़िर को 'शाफ़ी'
दम भर के लिए पलकों के तले अफ़्सोस इक़ामत कर न सके
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Akhtar Husain Shaafi
ज़ौक़-ए-नज़र बढ़ाइए गुलज़ार देख कर
उल्फ़त का सौदा कीजिए बाज़ार देख कर

मैं ने जुनून-ए-इश्क़ से दामन बचा लिया
हर बुल-हवस को तेरा परस्तार देख कर

मेरे ही दर पे था कोई साइल के रूप में
हैरत-ज़दा रहा मुझे नादार देख कर

नग़्मा-सरा न हो सका गुलशन में अंदलीब
तूफ़ान-ओ-बर्क़-ओ-बाद के आसार देख कर

बेताब दिल को और तरसती निगाह को
बहला सका न मैं गुल-ओ-गुलज़ार देख कर

दिल गुफ़्तुगू की सम्त झुका शे'र बन गए
इज़हार-ए-ग़म को रूह का ग़म-ख़्वार देख कर

होश-ओ-हवस की जंग में हैरत-ज़दा रहा
जज़्बों का शोर अक़्ल के अफ़्कार देख कर

आँखों से काएनात के आँसू टपक पड़े
शाफ़ी को इस जहान में बीमार देख कर

याद आ गईं ख़िरद को वो जन्नत की लग़्ज़िशें
दिल का जुनून-ओ-शौक़ शरर-बार देख कर

हाथों में दिल के परचम-ए-अफ़्कार दे दिया
इंसानियत को बरसर-ए-पैकार देख कर
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Akhtar Husain Shaafi
है यक़ीं मुझे मिरा हम-नशीं मिरी इस अदा से ख़फ़ा नहीं
न झुकेगा सर दर-ए-हुस्न पर कि सनम सनम है ख़ुदा नहीं

मिरी आरज़ू मिरी आशिक़ी है जुनूँ की शिद्दतों से बरी
ये मज़ाक़-ए-नौ है बड़ा अजब कि मैं सिर्फ़ तुझ पे फ़िदा नहीं

ज़रा दूर हैं मिरी मंज़िलें तू नज़र उठा न ख़फ़ा हो यूँ
मिरे हम-सफ़र मिरा रास्ता तिरे रास्ते से जुदा नहीं

है जो ग़म-ज़दों के दिलों का ग़म वो हमारे दिल का भी ग़म बने
वो अमीर हो कि ग़रीब हो ये बशर बशर से जुदा नहीं

जो ख़ुशी मिली है वो कम सही चलो हम सभी उसे बाँट लें
न पिए किसी का कोई लहू कि लहू है ज़हर दवा नहीं

ये जो दिल है जाम-ए-ग़रज़ नहीं ये मकाँ तवील-ओ-अरीज़ है
किसी दर्द को न मिले जगह मिरा दिल तो ऐसा बना नहीं

मैं फ़रार ज़ात से क्या करूँ है ये ज़ात अपने में काएनात
मुझे फ़ख़्र है मिरी शाइरी मिरी ज़िंदगी से जुदा नहीं
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Akhtar Husain Shaafi
सद-हैफ़ अदम को ठुकरा कर हस्ती की ज़ियारत कर बैठे
नादाँ थे हम नादानी में जीने की हिमाक़त कर बैठे

ख़ालिक़ ने नवाज़ा रोज़-ए-अज़ल किस तरह हमें क्या बतलाएँ
लेकिन जो अमानत पाई थी हम उस में ख़यानत कर बैठे

इस देस में जब हर रहज़न को रहबर का शरफ़ पाते देखा
क़द्रों के मुहाफ़िज़ हो कर भी क़द्रों से बग़ावत कर बैठे

नौ-ख़ेज़ गुलों के आरिज़ पर जो मौत की ज़र्दी ले आई
उस बाद-ए-सबा से घबरा कर तूफ़ाँ से मोहब्बत कर बैठे

वो दौर गया जब ज़ालिम को माइल-ब-करम करती थी वफ़ा
हम कर के मोहब्बत दुश्मन से सामान-ए-क़यामत कर बैठे

आज़ार न जाने कितने थे 'शाफ़ी' से मुदावा क्या होता
तौहीद के दीवाने थे मगर असनाम की ताअ'त कर बैठे
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