तुम्हारी अश्क-अफ़्शानी से हरगिज़ डर नहीं लगता
समंदर हैं हमें पानी से हरगिज़ डर नहीं लगता
हम ऐसे लोग जो साहिल पे अपना घर बनाते हैं
हमें तूफ़ान ओ तुग़्यानी से हरगिज़ डर नहीं लगता
सुनो ख़ुद क़ैस ने वारिस बनाया है हमें अपना
हमें सहरा की वीरानी से हरगिज़ डर नहीं लगता
ज़ियादा से ज़ियादा इश्क़ में जाँ ही तो जाएगी
हमें इस दुश्मन-ए-जानी से हरगिज़ डर नहीं लगता
हम उसकी आँख से आँखें मिलाकर बात करते हैं
हमें सूरज की पेशानी से हरगिज़ डर नहीं लगता
ये रुक़्का बस हमारे वास्ते क़ाग़ज़ का टुकड़ा है
हमें फ़रमान-ए-सुल्तानी से हरगिज़ डर नहीं लगता
ये दुनिया भी उन्हीं लोगों को पलकों पर बिठाती है
जिन्हें इस आलम-ए-फ़ानी से हरगिज़ डर नहीं लगता
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