Dwijendra Dwij

Dwijendra Dwij

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Dwijendra Dwij shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Dwijendra Dwij's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
अश्क बन कर जो छलकती रही मिट्टी मेरी
शो'ले कुछ यूँ भी उगलती रही मिट्टी मेरी

मेरे होने का सबब मुझ को बताती लेकिन
मेरे पैरों में धड़कती रही मिट्टी मेरी

कुछ तो बाक़ी था मिरी मिट्टी से रिश्ता मेरा
मेरी मिट्टी को तरसती रही मिट्टी मेरी

दूर प्रदेश के तारे में भी शबनम की तरह
मेरी आँखों में चमकती रही मिट्टी मेरी

लोक-नृत्यों के कई ताल सुहाने बन कर
मेरे पैरों में थिरकती रही मिट्टी मेरी

सिर्फ़ रोटी के लिए दूर वतन से अपने
दर-ब-दर यूँ ही भटकती रही मिट्टी मेरी

मैं जहाँ भी था मेरा साथ न छोड़ा उस ने
ज़ेहन में मेरे महकती रही मिट्टी मेरी

कोशिशें जितनी बचाने की इसे की मैं ने
और उतनी ही धड़कती रही मिट्टी मेरी
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Dwijendra Dwij
आइने कितने यहाँ टूट चुके हैं अब तक
आफ़रीं उन पे जो सच बोल रहे हैं अब तक

टूट जाएँगे मगर झुक नहीं सकते हम भी
अपने नामों की हिफ़ाज़त में तने हैं अब तक

रहनुमा उन का वहाँ है ही नहीं मुद्दत से
क़ाफ़िले वाले किसे ढूँड रहे हैं अब तक

अपने इस दिल को तसल्ली नहीं होती वर्ना
हम हक़ीक़त तो तिरी जान चुके हैं अब तक

फ़त्ह कर सकता नहीं जिन को जुनूँ मज़हब का
कुछ वो तहज़ीब के महफ़ूज़ क़िले हैं अब तक

उन की आँखों को कहाँ ख़्वाब मयस्सर होते
नींद भर भी जो कभी सो न सके हैं अब तक

देख लेना कभी मंज़र वो घने जंगल का
जब सुलग उट्ठेंगे जो ठूँठ दबे हैं अब तक

रोज़ नफ़रत कि हवाओं में सुलग उठती है
एक चिंगारी से घर कितने जले हैं अब तक

उन उजालों का नया नाम बताओ क्या हो
जिन उजालों में अँधेरे ही पले हैं अब तक

पुर-सुकूँ आप का चेहरा ये चमकती आँखें
आप भी शहर में लगता है नए हैं अब तक

ख़ुश्क आँखों को रवानी ही नहीं मिल पाई
यूँ तो हम ने भी कई शेर कहे हैं अब तक

दूर अपनी है अभी प्यास बुझाना मुश्किल
और 'द्विज' आप तो दो कोस चले हैं अब तक
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Dwijendra Dwij
जितना दिखता हूँ मुझे उस से ज़ियादा न समझ
इस ज़मीं का हूँ मुझे कोई फ़रिश्ता न समझ

ये तिरी आँख के धोके के सिवा कुछ भी नहीं
एक बहते हुए दरिया को किनारा न समझ

छोड़ जाएगा तिरा साथ अँधेरे में यही
ये जो साया है तिरा इस को भी अपना न समझ

जिन किताबों ने अंधेरों के सिवा कुछ न दिया
उन किताबों के उजालों को उजाला न समझ

ये जो बिफरा तो डुबोएगा सफ़ीने कितने
तू इसे आँख से टपका हुआ क़तरा न समझ

वो तुझे बाँटने आया है कई टुकड़ों में
मुस्कुराते हुए शैताँ को मसीहा न समझ

तुझ से ही माँग रहा है वो तो ख़ुद अपना वजूद
ख़ुद जो साइल है उसे कोई ख़लीफ़ा न समझ

है तिरे साथ अगर तेरे इरादों का जुनून
क़ाफ़िला है तू कभी ख़ुद को अकेला न समझ

साथ हैं मेरे बुज़ुर्गों की दुआएँ इतनी
मैं हूँ महफ़िल तू मुझे पल को भी तन्हा न समझ
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Dwijendra Dwij
मैं उस दरख़्त का बस आख़िरी ही पत्ता था
जिसे हमेशा हवा के ख़िलाफ़ लड़ना था

मैं ज़िंदगी में कभी इस क़दर न भटका था
कि जब ज़मीर मुझे रस्ता दिखाता था

मशीन बन तो चुका हूँ मगर नहीं भूला
कि मेरे जिस्म में दिल भी कभी धड़कता था

वो बच्चा खो गया दुनिया की भीड़ में कब का
हसीन ख़्वाबों की जो तितलियाँ पकड़ता था

फिर उस के बा'द परिंदों पे जाने क्या गुज़री
मैं एक पेड़ की शाख़ों को काट आया था

तमाम-उम्र वो आया नहीं ज़मीं पे कभी
हवा में उस ने जो सिक्का जो कभी उछाला था

मिरा वजूद भी शामिल था उस की मिट्टी में
मिरा भी खेत की फ़स्लों में कोई हिस्सा था

न जने कितनी सुरंगें निकल गईं उस से
खड़ा पहाड़ भी तो आँख का ही धोका था

जो बात बात पे खाता रहा ख़ुदा की क़सम
क़सम ख़ुदा की वही आदमी तो झूटा था

पता करो कि अभी वो बड़ा हुआ कि नहीं
बड़े दरख़्त के नीचे जो नन्हा पौदा था

उस एक शे'र पे आँखें चमक उठी उस की
वो शे'र जिस में कि रोटी का ज़िक्र आया था

हमारी ज़िंदगी थी इक तलाश पानी की
जहाँ पे रेत का 'द्विज' एक छनता दरिया था
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Dwijendra Dwij
ये कौन छोड़ गया उस पे ख़ामियाँ अपनी
मुझे दिखाता है आईना झुर्रियाँ अपनी

बना के छाप लो तुम उन को सुर्ख़ियाँ अपनी
कुएँ में फेंक दी हम ने तो नेकियाँ अपनी

बदलते वक़्त कि रफ़्तार थामते हैं हुज़ूर
बदलते रहते हैं अक्सर जो टोपियाँ अपनी

क़तारें देख के लम्बी हज़ारों लोगों की
मैं फाड़ देता हूँ अक्सर सब अर्ज़ियाँ अपनी

नहीं लिहाफ़ ग़िलाफ़ों की कौन बात करे
तू देख फिर भी गुज़रती हैं सर्दियाँ अपनी

ज़लील होता है कब वो उसे हिसाब नहीं
अभी तो गिन रहा है वो दिहाड़ियाँ अपनी

यूँ बात करता है वो पुर-तपाक लहजे में
मगर छुपा नहीं पाता वो तल्ख़ियाँ अपनी

भले दिनों में कभी ये भी काम आएगा
अभी सँभाल के रख लो उदासियाँ अपनी

हमें ही आँखों से उन को सुनाना आता नहीं
सुना ही देते हैं चेहरे कहानियाँ अपनी

मिरे लिए मिरी ग़ज़लें हैं कैनवस की तरह
उकेरता हूँ मैं जिन पर उदासियाँ अपनी

तमाम फ़लसफ़े ख़ुद में छुपाए रहती हैं
कहीं हैं धूप कहीं छाँव वादियाँ अपनी

अभी जो धुँद में लिपटी दिखाई देती हैं
कभी तो धूप नहाएँगी बस्तियाँ अपनी

बुलंद हौसलों कि इक मिसाल हैं ये भी
पहाड़ रोज़ दिखाते हैं चोटियाँ अपनी

भुला रही है तुझे धूप 'द्विज' पहाड़ों की
तू खोलता ही नहीं फिर भी खिड़कियाँ अपनी
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Dwijendra Dwij
उस का है अज़्म-ए-सफ़र और निखरने वाला
सख़्त मौसम से मुसाफ़िर नहीं डरने वाला

चारगर तुझ से नहीं कोई तवक़्क़ो मुझ को
दर्द होता है दवा हद से गुज़रने वाला

ना-ख़ुदा तुझ को मुबारक हो ख़ुदाई तेरी
साथ तेरे मैं नहीं पार उतरने वाला

उस पे एहसान ये करना न उठाना उस को
अपने पैरों पे खड़ा होगा वो गिरने वाला

पार करने थे उसे कितने सवालों के भँवर
अटकलें छोड़ गया डूब के मरने वाला

मैं उड़ानों का तरफ़-दार उसे कैसे कहूँ
बाल-ओ-पर जो है परिंदों के कतरने वाला

क्यूँ भला मेरे लिए इतने परेशाँ हो तुम
एक पत्ता ही तो हूँ सूख के झरने वाला

अपनी नज़रों से गिरा है जो किसी का भी नहीं
साथ क्या देगा तिरा ख़ुद से मुकरने वाला

गर्द हालात की अब ऐसी जमी है तुझ पर
आईने अक्स नहीं कोई उभरने वाला

ये ज़मीं वो तो नहीं जिस का था वा'दा तेरा
कोई मंज़र तो हो आँखों में ठहरने वाला
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Dwijendra Dwij