Faiz ul Hasan Khayal

Faiz ul Hasan Khayal

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Faiz ul Hasan Khayal shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Faiz ul Hasan Khayal's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
ऐ दिल अच्छा नहीं मसरूफ़-ए-फ़ुग़ाँ हो जाना
ग़म की तौहीन है अश्कों का रवाँ हो जाना

दिल की आवाज़ भी मजरूह जहाँ होती है
ऐसे हालात में ख़ामोश वहाँ हो जाना

मेरे आँसू जो गिरें टाँक लो तुम जूड़े में
देख ले कोई तो फूलों का गुमाँ हो जाना

अहल-ए-साहिल को भी अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ हो जाए
क़तरा-ए-अश्क ज़रा सैल-ए-रवाँ हो जाना

रुख़स्त-ए-मौसम-ए-गुल के भी उठाओ सदमे
इतना आसाँ नहीं एहसास-ए-ख़िज़ाँ हो जाना

क़ैद-ए-मौसम नहीं नग़्मात-ए-अना दिल के लिए
कोई मौसम हो गुल-ए-तर की ज़बाँ हो जाना

मेरे जीने का सहारा थीं जो नज़रें कल तक
क्या सितम है उन्हें नज़रों का गराँ हो जाना

शौक़-अफ़ज़ा है ये अंदाज़-ए-हिजाब-ए-ख़ूबाँ
दिल में रहते हुए आँखों से निहाँ हो जाना

वो गुलिस्ताँ में जो आ जाएँ तो मुमकिन है 'ख़याल'
मुस्कुराती हुई कलियों का जवाँ हो जाना
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Faiz ul Hasan Khayal
सुब्ह-ए-नौ लाती है हर शाम तुम्हें क्या मा'लूम
ज़ख़्म ख़ुशियों के हैं पैग़ाम तुम्हें क्या मा'लूम

भूल कर भी जो किसी बज़्म में आया न गया
सैंकड़ों उस पे हैं इल्ज़ाम तुम्हें क्या मा'लूम

लोग गुलशन में तो चलते हैं सर-अफ़राज़ी से
उन में कितने हैं तह-ए-दाम तुम्हें क्या मा'लूम

कुछ अँधेरे भी ख़तावार-ए-तबाही हैं मगर
रौशनी पर भी है इल्ज़ाम तुम्हें क्या मा'लूम

जिस को तुम ढूँडते हो शम-ए-रुख़-ए-नाज़ लिए
वो तो अर्से से है गुमनाम तुम्हें क्या मा'लूम

जो रुख़-ए-ज़ीस्त पे था हर्फ़-ए-ग़लत की मानिंद
मिल रहा है उसे इनआ'म तुम्हें क्या मा'लूम

जो कफ़न बाँध के चलते हैं वफ़ा की रह में
ज़िंदगी कर चुके नीलाम तुम्हें क्या मा'लूम

सुर्ख़-रू कौन हुआ कूचा-ए-जानाँ में कभी
नामवर भी हुए बदनाम तुम्हें क्या मा'लूम

दो क़दम भी न चले राह-ए-वफ़ा में हम लोग
है अभी ज़ौक़-ए-तलब ख़ाम तुम्हें क्या मा'लूम

जो जला रात की तन्हाई में उस पर भी 'ख़याल'
बेवफ़ाई का है इल्ज़ाम तुम्हें क्या मा'लूम
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Faiz ul Hasan Khayal
हम ने सहरा को सजाया था गुलिस्ताँ की तरह
तुम ने गुलशन को बनाया है बयाबाँ की तरह

रात का ज़हर पिए ख़्वाब का आँचल ओढ़े
कौन है साथ मिरे गर्दिश-ए-दौराँ की तरह

ढूँढता फिरता हूँ अब तक भी हैं सहरा सहरा
उसी लम्हे को जो था फ़स्ल-ए-बहाराँ की तरह

मस्लहत-कोश ज़माने का भरोसा क्या है
जो भी मिलता है यहाँ गर्दिश-ए-दौराँ की तरह

आज वो लम्हे मुझे डसते हैं तन्हा पा कर
कभी महबूब थे जो मुझ को दिल-ओ-जाँ की तरह

जाने क्या बात है क्यूँ जश्न-ए-मसर्रत में नदीम
याद आती है तिरी शाम-ए-ग़रीबाँ की तरह

कब तलक शहर की गलियों में फिरोगे यारो
आसमानों पे उड़ो तख़्त-ए-सुलैमाँ की तरह

ये तो परवानों के दिल हैं जो पिघल जाते हैं
कौन जलता है यहाँ शम-ए-शबिस्ताँ की तरह

कौन ख़्वाबों के जज़ीरे से चला आया 'ख़याल'
दिल में इक रौशनी है सुब्ह-ए-दरख़्शाँ की तरह
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Faiz ul Hasan Khayal
दिल जिस का दर्द-ए-इश्क़ का हामिल नहीं रहा
वो शख़्स तेरे प्यार के क़ाबिल नहीं रहा

जब भी हिनाई हाथों से गेसू सँवर गए
आईना-ए-बहार मुक़ाबिल नहीं रहा

हर आस्ताँ से लौट के आना पड़ा उसे
जो तेरे दर पे आने के क़ाबिल नहीं रहा

महरूमियाँ ही जिस का मुक़द्दर हैं दोस्तो
वो महफ़िल-ए-नशात के क़ाबिल नहीं रहा

जब तुम न थे तो कुछ भी नहीं था बहार में
तुम आ गए तो कोई मुक़ाबिल नहीं रहा

दीवाने तेरे डूब गए गहरी नींद में
ज़िंदाँ में शोर-ए-तौक़-ओ-सलासिल नहीं रहा

जब आप मुस्कुराए ग़म-ए-दिल की बात पर
दिल दर्द को छुपाने के क़ाबिल नहीं रहा

तन्हाइयों की बज़्म ही अच्छी रही 'ख़याल'
महफ़िल में पुर-सुकून कभी दिल नहीं रहा
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Faiz ul Hasan Khayal
काँच के शहर में पत्थर न उठाओ यारो
मय-कदा है इसे मक़्तल न बनाओ यारो

सहन-ए-मक़्तल में भी मय-ख़ाना सजाओ यारो
शब के सन्नाटे में हंगामा मचाओ यारो

ज़िंदगी बिकने चली आई है बाज़ारों में
इस जनाज़े के भी कुछ दाम लगाओ यारो

जिन की शह-ए-रग का लहू फूल की अंगड़ाई था
उन को अब हाल-ए-गुलिस्ताँ न बताओ यारो

फैलते साया-ए-शब में न चलो रुक रुक के
बुझती राहों को कफ़-ए-पा से सजाओ यारो

बज़्म-ए-याराँ में वो कुछ सोच के आया होगा
ऐसे दीवाने को ठोकर न लगाओ यारो

रात ढल जाएगी मय-ख़ाना सँभल जाएगा
कोई नग़्मा कोई पैग़ाम सुनाओ यारो

ज़िंदगी रेंगती फिरती है यहाँ कासा-ब-कफ़
उस को अब वक़्त का आईना दिखाओ यारो

अब धुँदलकों में भी है ताज़ा उजालों का 'ख़याल'
शब की दीवार सलीक़े से गिराओ यारो
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Faiz ul Hasan Khayal
एक मुद्दत से सर-ए-बाम वो आया भी नहीं
हम को अब हसरत-ए-दीदार-ए-तमन्ना भी नहीं

जादा-ए-शौक़ में तन्हा भी हूँ तन्हा भी नहीं
क्या हसीं बात है रुस्वा भी हूँ रुस्वा भी नहीं

तुम जो नाराज़ हुए हो गई दुनिया बरहम
अब तो गिरती हुई दीवार का साया भी नहीं

किस को मैं दूत कहूँ किस को मैं दुश्मन जानूँ
सभी अपने हैं यहाँ कोई पराया भी नहीं

आज तक भी मैं परस्तिश तो किए जाता हूँ
ये अलग बात कि मैं ने तुम्हें देखा भी नहीं

सुब्ह की शमएँ लिए फिरते हो क्यूँ दीवानो
रिश्ता-ए-शब तो अभी ख़ैर से टूटा भी नहीं

तो तख़य्युल के दरीचे में था खोया खोया
पैकर-हुस्न तुझे मैं ने जगाया भी नहीं

किस तरह ग़म को मैं तक़्सीम करूँगा यारो
क़िस्सा-ए-दर्द को हालात ने समझा भी नहीं

कब तलक चलना पड़ेगा हमें तन्हा तन्हा
अब किसी मोड़ पे मिल जाएँगे ऐसा भी नहीं

रू-ब-रू उन के मिरे होंट न खुलने पाए
दिल को इज़हार-ए-तमन्ना का सहारा भी नहीं

जाने क्या सोच के उस ने मुझे दीवाना कहा
हाए उस को अभी महफ़िल पे भरोसा भी नहीं

राब्ते जोड़ने निकला था मैं इंसाँ के 'ख़याल'
किसी इंसाँ ने मुझे प्यार से देखा भी नहीं
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Faiz ul Hasan Khayal