Iffat abbas

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Iffat abbas shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Iffat abbas's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
मिरी मोहब्बत की बे-ख़ुदी को तलाश-ए-हक़्क़-ए-जलाल देना
कभी जो पाबंदा-ए-सितम हूँ मुझे भी अज़्म-ए-मक़ाल देना

मोहब्बतों की ये शोख़ियाँ हैं ये ए'तिमाद-ए-वफ़ा है मेरा
बिगड़ के फ़िहरिस्त-ए-आशिक़ाँ से कहीं न मुझ को निकाल देना

रह-ए-मोहब्बत की सख़्तियों से जो रंग-ए-रुख़ था झुलस चुका है
तुम्हारी उल्फ़त पे मर रहे हैं मिरा भी चेहरा उजाल देना

तुम्हारा सब हम को जानते हैं तो अपनी इज़्ज़त की लाज रख के
हमारी हस्ती के आइने को कोई हुनर कुछ कमाल देना

तुम्ही तो हो मीर मय-कदे के तुम्ही हो साक़ी-ए-तिश्ना-कामी
हम अपना साग़र लिए खड़े हैं ज़रा सी इस में भी ढाल देना

सुनी हैं फ़य्याज़ियाँ तुम्हारी तुम्हारे मस्तों में है ये शोहरत
है मेरे साक़ी का ये वतीरा कि जाम भर कर उबाल देना

पसंद हैं तुम को भीगी आँखें लरज़ते लब और उदास चेहरे
विसाल का जब इरादा करना मुझे भी रंग-ए-मलाल देना
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है ये शहर-ए-इश्क़ याँ आब-ओ-हवा कुछ और है
सुर्ख़ रंगत है ज़मीं की और फ़ज़ा कुछ और है

याँ जुनूँ है कारवान-ए-शौक़ को बाँग-ए-रहील
ऐ मुसाफ़िर ये पयाम-ए-नक़्श-ए-पा कुछ और है

है जुदा इस शहर-ए-दिल में लज़्ज़त-ए-रंज-ओ-अलम
इस जगह ख़ून-ए-जिगर का ज़ाइक़ा कुछ और है

आरिफ़-ए-कामिल हैं इन सहराओं के सहरा-नवर्द
याँ तो हर मजनूँ का अंदाज़-ओ-अदा कुछ और हे

ज़िक्र की तमसील हर तनसील की ता'बीर है
लुत्फ़-ए-जन्नत और है आब-ए-बक़ा कुछ और है

रेगज़ार-ए-हिज्र में एहसास के ज़मज़म निहाँ
इस जगह तो तिश्नगी का सिलसिला कुछ और है

तू जो नौ-वारिद है सुन याँ ऐश-ए-हस्ती है जुदा
हुस्न की सरकार में लफ़्ज़-ए-फ़ना कुछ और है

दोश पर आग़ोश में पहलू में हैदर कब न थे
दस्त-ए-मुर्सल पर बुलंदी का मज़ा कुछ और है

अहल-ए-रद्द-ओ-कद ने सौ तफ़्सीर की इक लफ़्ज़ की
पर न समझे कि नबी का मुद्दआ' कुछ और है

सुन किसी मज्ज़ूब से एक बार रूदाद-ए-ग़दीर
ख़ुम के मिम्बर पर अली का मर्तबा कुछ और है

सुर्ख़-रू हो जाए तुझ से दा'वा-ए-उल्फ़त शहाब
आशिक़ों के ज़िंदा रहने की अदा कुछ और है
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बला नई कोई पालूँ अगर इजाज़त हो
जुनूँ को शौक़ बना लूँ अगर इजाज़त हो

निगार-खाना-हस्ती के आइनों में ज़रा
मैं अपना अक्स सजा लूँ अगर इजाज़त हो

शराब-ए-हुस्न में मस्ती है बे-नियाज़ी की
ख़ुदी के शीशे में ढालूँ अगर इजाज़त हो

हमारी तुम से मुलाक़ात हो भी सकती है
मैं कोई राह निकालूँ अगर इजाज़त हो

बहुत दिनों से हैं उर्यां-बदन ख़याल मिरे
रिदा-ए-हर्फ़ उढ़ा लूँ अगर इजाज़त हो

वो तिश्नगी जिसे तुम सलसबील कहते हो
लबों पे मैं भी उठा लूँ अगर इजाज़त हो

नज़र ज़ुहूर के जिन तजरबों से गुज़री है
कभी किसी को बता लूँ अगर इजाज़त हो

किसी से दिल ही नहीं मिल सका 'शहाब' तो अब
नज़र तुम्ही से मिला लूँ अगर इजाज़त हो
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