Iftikhar Bukhari

Iftikhar Bukhari

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Iftikhar Bukhari shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Iftikhar Bukhari's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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Shayari
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  • Nazm
बारिश गिरती है
मटियाली क़ब्रों पर बारिश गिरती है
हद्द-ए-नज़र तक जल-थल
सीला सीला ख़्वाब मुसलसल

याद नहीं मैं ने बारिश को पहली बार कहाँ देखा था
खिड़की में या ख़्वाब में
छत पर या दरिया के किनारे
अफ़्रीक़ा के बच्चों की बंजर आँखों में
या बंगाल में नंगी लाशों वाले सोगी साहिलों पर
कितनी बारिशें दफ़्न हैं जाने इस बारिश के नीचे

एक गली के ठंडे पानी में भूला बचपन चलता था
एक महकता आँचल कोई गीला चेहरा पोंछ रहा था
जाने कहाँ मैं फेंक आया हूँ
वो दिल और वो जूते
तैरती तख़्तियाँ भीगे बस्ते
प्यासी कूक किसी कोयल की
दूर हरी तन्हाई में
इक गीत जो उस के लब ने मेरे लब से जुड़ कर गाया था
इक जलती बुझती शाम जुदाई
सावन की पहली बूंदों में

जिस ने इतने रंग भरे थे
मेरी उम्र के ख़ाली-पन में
आज ख़ुद उस का अपना कोई रंग नहीं
मटियाली क़ब्रों पर बारिश गिरती है
बे-मक़्सद है जैसे ज़िंदगी
बे-मा'नी है जैसे मौत
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मैं सोना चाहता हूँ
मैं वापस अपने गुम-शुदा ख़्वाब
की नाव में
सोना चाहता हूँ

मरी हुई मछलियों जैसी
तेज़ शर-अंगेज़ महक के
ज़ेर-ए-असर

हुआ यूँ कि मैं ने अपने बदन पर
गीली लज़ीज़ उँगलियों को
रेंगते महसूस किया

वो दो ख़ूबसूरत हाथ थे

मरजानी पत्थर से तराशीदा
किसी जादूई ख़याल जैसी
कुँवारी लाश
मेरे पहलू में

अचानक बेदारी
बिना कुछ सोचे
मैं रात की नदी में कूद गया
साहिल की सम्त
मुसलसल तैरता हुआ
जहाँ गीली रेत पर
उदास कछवे
आने वाले ज़मानों के
अंडे दफ़्न कर के
वापसी के सफ़र पर
रेंगते हैं

मुझे अस्पतालों में बताया गया
मैं ला-इलाज हूँ
मुझे मेरे आख़िरी पल तक
उदास कछुओं के पैरों की
बे-आवाज़ आहट
सोने नहीं देगी
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तुम तो कहते थे
दुनिया बदलने को है
छोटे छोटे थे हम
फ़लसफ़ी कह के सब छेड़ते थे तुम्हें
फुलाँ ने कहा है
फुलाँ ने लिखा है
किताबों से देते थे अक्सर हवाले
सवेरे सवेरे
मुझे रोज़ ले जाते थे
साथ इस्टाल पर
मुफ़्त अख़बार पढ़ने
ये धुन थी
कि बस हो न हो
आज दुनिया बदलने की अच्छी ख़बर
छप गई हो

ज़माने की आँधी में उड़ते हुए
टुकड़े अख़बार के
हम जुदा हो गए
फिर मिले ही नहीं

इफ़्तिख़ार
अब मिरे शीशा-ए-उम्र में
आख़िरी रेत है

चंद आइंदा अख़बार बाक़ी हैं शायद
तिरे नक़्श धुँदला चुके हैं
मिरी याद में
पर तिरा नाम मैं भूल सकता नहीं
मेरे बचपन के ऐ दोस्त
हम दोनों हमनाम थे ना

नहीं जानता
तुम कहाँ हो
या शायद नहीं हो अभी तक
मिरी तरह दुनिया में
दुनिया जो बदली नहीं

हाँ
जो इस्टाल था ना
वो अख़बार का
रेलवे रोड पर
उस जगह एक जूतों की दुकान है
उस ज़माने के हॉकर सभी मर चुके हैं
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शायद एक साथ सीखता है आदमी
चलना और सोचना

एक सहन में
एक दिन
मैं सीख गया
चलना
और सोचना

चिड़ियों
पौदों
और रंग बिरंगे कीड़ों के दरमियान

माँ कहती
तुम इतना चलते हो
एक सीध में चलो
तो शाम तक पहुँच जाओ
किसी और शहर में

मैं ने आवारगी की

दोपहरों में
अकेले

तारों भरी रातों में
उदास शाइ'रों
और जुगनुओं के साथ

मैं चलता रहा
गलियों में
शाह-राहों पर
जुलूसों में
जनाज़ों के साथ
सोचते हुए
ना-इंसाफ़ी इंक़िलाब
मौत ख़ुदा और जहन्नुम
और बहुत सी फ़ुज़ूलियात

मैं चलता रहा
बारिशों में
बर्फ़-बारियों में
धुंद में
धूप और आँधियों में
सोचते हुए
जो मैं बता सकता हूँ फ़ख़्र से
और वो भी
जो मैं ख़ुद से भी छुपाता हूँ

मैं अजनबी मुल्कों में गया
तन्हा चलने के लिए
तन्हा सोचने के लिए

अब मैं लौट आया हूँ
ढलती उम्र में
बग़ैर कहीं पहुँचे हुए
अब मैं कहीं नहीं जाता
पर अब भी चलता हूँ
हर रोज़
कम-अज़-कम
एक घंटा
तेज़ तेज़
पावँ चक्की पर
ये सोचते हुए
कि मैं कब तक चलूँगा
मैं कब तक सोचूँगा
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दिन लड़खड़ाता है
दुनिया अपने सुकूत में डगमगाती है
हर शय क़ाबिल-ए-दीद
मगर गुरेज़ाँ है
सब कुछ नज़दीक है
मगर ना-मुम्किन
किताब आईना कपड़े
पिंजरा और परिंदा
अपने नामों के साए में
बे-हरकत
वक़्त धड़कता है
मेरे सीने में
लहू की न बदलने वाली
आज़ुर्दा ताल पर
धूप-छाँव से बे-नियाज़ दीवार
मब्नी-बर-वहम तस्वीरों के तिमसाल घर
में बदल जाती है
मैं ख़ुद को अपनी ज़ात पर पहरा देती
आँख के मरकज़ में छुपाता हूँ
मैं सिमटता हूँ
मैं बिखरता हूँ
मैं फ़क़त एक वक़्फ़ा हूँ
रुकने और चलने के दरमियान
जीने और मरने के दरमियान
मैं एक आहट हूँ
ना-क़ाबिल-ए-शुनीद
महीन पल के लिए
रात ब-ज़ाहिर बे-कनार है
फिर भी मैं सर को उठाता हूँ
आसमान पर सितारों की मख़्फ़ी तहरीर
अचानक मुझ पर मुस्कुराती है
और अनजाने में
मैं जान जाता हूँ
कि मुझे लिखा गया
मिटने के लिए
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कितने समुंदर
कितने सहरा
जंगल और बारिशें
बे-शुमार आईनों का ख़ाली-पन
लम्हे या सदियाँ
उबूर कर के
दाख़िल हुई
मेरी तन्हाई
तेरी तन्हाई में

ऐ शहर-ए-गुल-ए-सुर्ख़
ऐ अज़ीम ख़ूबसूरत पत्थर
मुझे ख़ज़ाने से
कोई सरोकार नहीं
जहाँ खूंटे से बँधा
लाल घोड़ा
तेईस सौ बरस
की बे-ख़्वाबी में
ईस्तादा है

मुझे फ़क़त तेरी उदास रात का
एक कोना दरकार है
कि मेरी ख़ामोशी
तेरी ख़ामोशी से कलाम करे

मेरे पास अफ़्सोस की कहानी है
जिसे सुन कर क़दीम चाँद
रेत के आँसू बहाएगा
कि तेरे मातमी गुलाब सैराब हों

उड़ते ज़मानों की धज्जियाँ
गुम-शुदा उम्रों की राइगानी
तारीख़ की मुनाफ़िक़ अलमारियों में
लटकते उस्तुख़्वाँ
मुझे अमानतदार पाएँगे

बर्बाद दीवारों की ख़राशों से
झाँकता इंहिमाक नहीं टूटेगा

ऐ गुलाब शहर
मैं बे-ज़बान क़िस्सा-गो
एक शब-बसरी का सवाली हूँ
तेरे संगीन दरवाज़े पर

मैं तुझे तेरे जैसा
अपना दिल हदिया करूँगा
पत्थर का गुलाब

तुझे ख़ामोश दास्तान सुनाऊँगा
किसी बहुत क़दीम ज़माने की
गुनाहगार ख़ुदाओं से दूर
ख़ालिस इबादत गुज़ार अँधेरे में
सुब्ह-ए-अबद के आख़िरी क़हक़हे से बे-नियाज़
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मैं सोचता हूँ
अगर दो रास्ते होते
तुम तक जाने के लिए
किसी बाग़ में चहल-क़दमी की तरह
यख़-बस्ता पहाड़ों में
सफ़ेद सुरंगों जैसे
अगर दो ख़्वाब होते
सहमी हुई ख़ामोश रातों में
जागने के लिए
सोने के लिए
अगर दो जंगल होते
पुर-असरार भटकने के लिए
या दुनिया-दारों से कटने के लिए
अगर दो परिंदे होते
मोहब्बत के लिए
अगर दो सराब होते
प्यासा जीने के लिए
प्यासा मरने के लिए
अगर दो कहानियाँ होतीं
क़दीम चट्टान पर कंदा
ना-क़ाबिल-ए-फ़हम नुक़ूश में मदफ़ून
याद करने के लिए
भूल जाने के लिए
अगर दो गीत होते
मेरे जीते जी
आख़िरी हिचकी लेने के लिए
या मेरे बा'द कुछ पल
मुझे रोने के लिए
अगर दो सितारे होते
सुब्ह-ए-काज़िब की दहलीज़ पर
चमकने के लिए
बुझने के लिए
उम्र गुज़ार कर
मैं सोचता हूँ
ये मुमकिन नहीं
इस दुनिया की बे-इंतिहाई में
दो चीज़ें नहीं होतीं
सिवाए दो तन्हाइयों के
तू
और मैं
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