Parkash Nath Parvez

Parkash Nath Parvez

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Parkash Nath Parvez shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Parkash Nath Parvez's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
हुस्न पाबंद-ए-जफ़ा हो जैसे
ये कोई ख़ास अदा हो जैसे

यूँ तिरी याद है मिरे दिल में
किसी मरघट में दिया हो जैसे

हो गया सूख के काँटा हर फूल
ये महकने की सज़ा हो जैसे

मेरी फ़ुर्क़त का ग़म-आगीं आलम
छुप के तू देख रहा हो जैसे

कश्तियाँ ग़र्क़ हुई जाती हैं
नाख़ुदा हो न ख़ुदा हो जैसे

अल्लह अल्लह तिरा अंदाज़-ए-ख़िराम
हर क़दम मौज-ए-सबा हो जैसे

कितनी पुर-कैफ़ है ये ज़ुल्मत-ए-शब
तेरी ज़ुल्फ़ों की घटा हो जैसे

तेरे होंटों पे तबस्सुम तौबा
माह-ओ-अंजुम की ज़िया हो जैसे

उन से करता हूँ तग़ाफ़ुल का गिला
इश्क़ में ये भी रवा हो जैसे

इस तरह इश्क़ से दिल-शाद हैं हम
यही हर ग़म की दवा हो जैसे

उस से आती नहीं अब कोई सदा
साज़-ए-दिल टूट गया हो जैसे

देख कर तुझ को ये होता है गुमाँ
तू मिरे दुख की दवा हो जैसे

उन को यूँ ढूँड रहा हूँ 'परवेज़'
इश्क़ से हुस्न जुदा हो जैसे
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Parkash Nath Parvez
प्यार के बंधन काट रहे हैं प्रेम का रिश्ता तोड़ रहे हैं
शहर-ए-मोहब्बत के बाशिंदे शहर-ए-मोहब्बत छोड़ रहे हैं

अरमानों के रह-वारों को जानिब-ए-दुनिया मोड़ रहे हैं
उल्फ़त का दम भरने वाले उल्फ़त का दिल तोड़ रहे हैं

इतना हम को इल्म नहीं था हिज्र के सदमे सहने होंगे
ये क़तअन एहसास नहीं था किस से नाता जोड़ रहे हैं

इस बस्ती में रहना बसना अपने बस की बात नहीं है
ख़ुद्दारी की फ़रमाइश पर शहर-ए-मोहब्बत छोड़ रहे हैं

देखें अपनी सरकश तौबा साथ हमारा देती भी है
आप तो नफ़रत के पत्थर पर जाम-ए-मोहब्बत फोड़ रहे हैं

ऐ 'परवेज़' ये दुनिया वाले तदबीरों से ग़ाफ़िल हो कर
क़िस्मत की दहलीज़ पे नाहक़ अपने सर को फोड़ रहे हैं
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Parkash Nath Parvez
न अहल-ए-दिल से न अहल-ए-नज़र से मिलता है
शुऊर-ए-ज़ात फ़क़त अपने दर से मिलता है

तुम्हारे फ़ैज़ से खिलते हैं ज़िंदगी में गुलाब
जुनूँ को रंग तुम्हारी नज़र से मिलता है

बिखर रही हैं ज़ियाएँ निखर रही है फ़ज़ा
तुम्हारा हुस्न जमाल-ए-सहर से मिलता है

फ़रोग़-ए-शौक़ है या इर्तिक़ा-ए-जज़्ब-ए-दरूँ
पता अब अपना तुम्हारी ख़बर से मिलता है

वही है हासिल-ए-इशरत वही वक़ार-ए-हयात
सुकून-ए-दिल जो ग़म-ए-मो'तबर से मिलता है

कहाँ फिर इज़्न-ए-सफ़र मिल गई अगर मंज़िल
सफ़र का ज़ौक़ फ़क़त रहगुज़र से मिलता है

वो कम-सुख़न हैं मगर हम से बे-नियाज़ नहीं
सुराग़-ए-दिल सुख़न-ए-मुख़्तसर से मिलता है

निसार उस पे दो-आलम के मय-कदे 'परवेज़'
वो एक जाम जो उन की नज़र से मिलता है
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Parkash Nath Parvez
गुलशन से आए हैं न बयाबाँ से आए हैं
दीवाने तेरे सरहद-ए-इम्काँ से आए हैं

इक माह-वश के हुस्न-ए-फ़रोज़ाँ के फ़ैज़ से
दिल में तजल्लियात के तूफ़ाँ से आए हैं

आँखों में है बहार-ए-दो-आलम बसी हुई
हम लोग आज महफ़िल-ए-जानाँ से आए हैं

क्या तेरे बस में उन का मुदावा भी है कोई
दिल में जो ज़ख़्म लुत्फ़-ए-फ़रावाँ से आए हैं

अल्लह रे एहतिमाम-ए-बहाराँ के सिलसिले
सहरा में फूल सेहन-ए-गुलिस्ताँ से आए हैं

उन के करम की मुफ़्त में तौहीन हो गई
इल्ज़ाम हम पे तंगी-ए-दामाँ से आए हैं

दिल को ग़म-ए-जहाँ की शिकायत नहीं रही
आदाब-ए-ज़ीस्त सोहबत-ए-रिंदाँ से आए हैं

क्या याद आ गई वो निगाह-ए-जमील-तर
फिर दिल में इज़्तिराब के पैकाँ से आए हैं

'परवेज़' आसमाँ को न बदनाम कीजिए
जितने सितम हैं कू-ए-निगाराँ से आए हैं
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Parkash Nath Parvez
सहरा-ए-ज़िंदगी के लिए नूर-ए-दीदा हूँ
काँटा सही मगर मैं गुल‌‌‌‌-ए-नौ-दमीदा हूँ

मुझ पर खुला है अहद-ए-बहार-ओ-ख़िज़ाँ का राज़
मैं इक हसीन फूल का रंग-ए-परीदा हूँ

तुझ को भी ज़िंदगी ने दिया दर्द-ए-बे-कराँ
मैं भी ग़म-ए-हयात का लज़्ज़त-चशीदा हूँ

तुझ से मिरा तअल्लुक़-ए-ख़ातिर है दाइमी
तू है अगर ग़ज़ल तो मैं तेरा क़सीदा हूँ

दुनिया मिटी हुई है मिरे इख़्तिसार पर
दोशीज़ा-ए-हयात की ज़ुल्फ़-ए-बुरीदा हूँ

तुम को मिरे तग़ाफ़ुल-ए-बे-जा का है गिला
मैं कुछ दिनों से ख़ुद से भी दामन-कशीदा हूँ

मैं सोचता हूँ मुझ पे ये तोहमत है किस लिए
अब वो भी कह रहे हैं कि मैं बरगुज़ीदा हूँ

काँटों से खेलता हूँ गुलिस्तान-ए-इश्क़ में
'परवेज़' फ़र्त-ए-शौक़ में दामन-दरीदा हूँ
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