Sabeela Inam Siddiqui

Sabeela Inam Siddiqui

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Sabeela Inam Siddiqui shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Sabeela Inam Siddiqui's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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अगर अल्फ़ाज़ से ग़म का इज़ाला हो गया होता
हक़ीक़त तो न होती बस दिखावा हो गया होता

अगर अपना समझ कर सिर्फ़ इक आवाज़ दे जाते
यक़ीं मानो कि मेरा दिल तुम्हारा हो गया होता

शब-ए-फ़ुर्क़त में जितने ख़्वाब भी मिलने के देखे थे
अगर ता'बीर मिलती तो उजाला हो गया होता

न करते मुंक़ता' गर तुम मरासिम की हसीं राहें
तो क़ासिद ख़त मिरा देने रवाना हो गया होता

मोहब्बत की अगर पाकीज़गी पर तुम यक़ीं करते
तो मिल कर तुम से पूरा सब ख़सारा हो गया होता

मिरी आशुफ़्तगी पर अब ज़माने को तअ'ज्जुब क्यूँ
अगर उल्फ़त न होती दिल सियाना हो गया होता

दिल-ए-फुर्क़त-ज़दा में है जो इक नासूर मुद्दत से
मुआलिज गर समझ पाता इफ़ाक़ा हो गया होता

जो दुख की फ़स्ल बोई है तो अब दुख काटना होगा
मुकाफ़ात-ए-अमल समझे इशारा हो गया होता

ये हिकमत है 'सबीला' ज़ीस्त में रब ने कमी रक्खी
वगरना हर बशर ख़ुद में ख़ुदा सा हो गया होता
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Sabeela Inam Siddiqui
ख़ामोश हूँ मैं लब पे शिकायत तो नहीं है
फ़रियाद करूँ ये मिरी आदत तो नहीं है

जो मौज-ए-ग़म-ओ-दर्द उठी है मिरे दिल में
हंगामा तो बे-शक है क़यामत तो नहीं है

शायद मुझे मिल जाए मिरे दर्द का दरमाँ
उम्मीद सही चैन की हालत तो नहीं है

फ़ुर्सत में मुझे याद भी कर लीजिए इक दिन
ये अर्ज़ मोहब्बत की अलामत तो नहीं है

मिल जाए सर-ए-राह किसी मोड़ पे कोई
इक हादसा बे-शक है रिफ़ाक़त तो नहीं है

इंसाफ़ जिसे हक़ का तरफ़-दार कहें सब
इस मुल्क में क़ाएम वो अदालत तो नहीं है

क्यूँ घर से निकलते हुए डरते हैं यहाँ लोग
इस शहर में क़ानून-ए-हिफ़ाज़त तो नहीं है

अल्लाह रज़ा पर तिरी राज़ी ही रहूँगी
हो शिकवा ज़बाँ पर ये जसारत तो नहीं है

आबाद रहा दिल में वही एक 'सबीला'
अब ग़ैर को आने की इजाज़त तो नहीं है
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Sabeela Inam Siddiqui
वो आलम तिश्नगी का है सफ़र आसाँ नहीं लगता
ब-ज़ाहिर तो मुझे बारिश का भी इम्काँ नहीं लगता

ये दिल जागीर है जिस की उसी के नाम कर दी है
जो मेरे दिल के आँगन में मुझे मेहमाँ नहीं लगता

शुऊ'र-ओ-आगही कैसी कोई वहशी कोई सरकश
ये कैसा देश है जिस में कोई इंसाँ नहीं लगता

नई क़द्रें नई तहज़ीब का आग़ाज़ होता है
गुलिस्तान-ए-अदब हरगिज़ कभी वीराँ नहीं लगता

न हो महफ़ूज़ माल-ओ-ज़र न इज़्ज़त-आबरू ही जब
तो फिर ज़िंदा किसी का भी मुझे ईमाँ नहीं लगता

कहाँ का फ़ख़्र कैसा नाज़ मन-आनम कि मन-दानम
मगर जो रब से पाया है मुझे अर्ज़ां नहीं लगता

ख़ुदा रक्खे 'सबीला' हर घड़ी माँ-बाप का साया
दुआ से जिन की तूफ़ाँ भी मुझे तूफ़ाँ नहीं लगता
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Sabeela Inam Siddiqui
जहाँ में जिस की शोहरत कू-ब-कू है
वो मुझ से आज महव-ए-गुफ़्तुगू है

रहा आबाद ख़्वाबों में जो अब तक
ख़ुशा क़िस्मत कि अब वो रू-ब-रू है

कभी वो प्यार से इक फूल लाए
बहुत दिन से मिरी ये आरज़ू है

नहीं आता ग़ज़ल में नाम कोई
तअल्लुक़ इस क़दर बा-आबरू है

मिरा एहसास जिस से है मोअत्तर
वही ख़ुशबू तो मेरे चार-सू है

सरापा मेरा जो है इतना रंगीं
ये उस की याद का ही रंग-ओ-बू है

जहाँ कल तक था मायूसी का सहरा
वहाँ उम्मीद की इक आबजू है

वो आवाज़ें जो दिल में गूँजती हैं
मिरी अन्फ़ास की वो हाव-हू है

मुझे ले जाए जो मंज़िल की जानिब
अब ऐसे कारवाँ की जुस्तुजू है

मिरा ज़ाहिर नज़र आता है जैसा
मिरा बातिन भी वैसा हू-ब-हू है

'सबीला' सोच इतनी पाक रक्खी
हर इक मज़मून मेरा बा-वज़ू है
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Sabeela Inam Siddiqui
मैं दरिया हूँ मगर दोनों तरफ़ साहिल है तन्हाई
तलातुम-ख़ेज़ मौजों में मिरी शामिल है तन्हाई

मोहब्बत हो तो तन्हाई में भी इक कैफ़ होता है
तमन्नाओं की नग़्मा-आफ़रीं महफ़िल है तन्हाई

बहुत दिन वक़्त की हंगामा-आराई में गुज़रे हैं
इन्हें गुज़रे हुए अय्याम का हासिल है तन्हाई

हुजूम-ए-ज़ीस्त से दूरी ने ये माहौल बख़्शा है
अकेली मैं मिरा कमरा है और क़ातिल है तन्हाई

मिरे हर काम की मुझ को वही तहरीक देती है
अगरचे देखने में किस क़दर मुश्किल है तन्हाई

उसी ने तो तख़य्युल को मिरे परवाज़ बख़्शी है
ख़ुदा का शुक्र है जो अब किसी क़ाबिल है तन्हाई

मोहब्बत की शुआ'ओं से तवानाई जो मिलती है
इसी रंगीनी-ए-मफ़हूम में दाख़िल है तन्हाई

ख़ुदा हसरत-ज़दा दिल की तमन्नाओं से वाक़िफ़ है
दुआएँ रोज़-ओ-शब करती हुई साइल है तन्हाई

किसी की याद है दिल में अभी तक अंजुमन-आरा
'सबीला' कौन समझेगा कि मेरा दिल है तन्हाई
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Sabeela Inam Siddiqui
रक्खे हर इक क़दम पे जो मुश्किल की आगही
मिलती है उस को राह से मंज़िल की आगही

सीखा है आदमी ने कई तजरबों के बा'द
तूफ़ान से ही मिलती है साहिल की आगही

उस का ख़ुदा से राब्ता ही कुछ अजीब है
दुनिया कहाँ समझती है साइल की आगही

नज़रों का ए'तिबार तो है फिर भी मेरा दिल
है इक सहीफ़ा जिस में मसाइल की आगही

दिन-रात जिस के प्यार में रहती हूँ बे-क़रार
उस को नहीं है क्यूँ दिल-ए-बिस्मिल की आगही

यादों के इक हुजूम में रह कर पता चला
तन्हाई भी तो रखती है महफ़िल की आगही

ख़ंजर का ए'तिबार नहीं वो तो साफ़ है
लेकिन मिलेगी ख़ून से क़ातिल की आगही

मश्क़-ए-सुख़न 'सबीला' निखारेगी फ़न को और
मतलूब है कुछ और अभी दिल की आगही
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Sabeela Inam Siddiqui
भीगा हुआ है आँचल आँखों में भी नमी है
फैला हुआ है काजल आँखों में भी नमी है

बरसेगा आज खुल कर बेचैन-ओ-मुज़्तरिब हूँ
छाया है ग़म का बादल आँखों में भी नमी है

कैसी अजीब हालत तारी हुई है दिल पर
हूँ मुंतज़िर मुसलसल आँखों में भी नमी है

मुद्दत के बाद आया दुनिया-ए-दिल में कोई
सहरा हुआ है जल-थल आँखों में भी नमी है

ये ख़ुद-सुपुर्दगी का है इक अजीब आलम
ख़्वाबों का जैसे जंगल आँखों में भी नमी है

महसूस हो रहा है इक जाल में हूँ कब से
ये इश्क़ है कि दलदल आँखों में भी नमी है

इक हर्फ़-ए-हक़ के बदले चढ़ते हैं कितने सूली
शहर-ए-वफ़ा है मक़्तल आँखों में भी नमी है

इक दिन सुख़न की मलिका बन जाओगी 'सबीला'
फिर आज क्यूँ हो बे-कल आँखों में भी नमी है
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Sabeela Inam Siddiqui
जो बा-क़िरदार हो उस को सियानी कौन कहता है
किसी मज़दूर की बेटी को रानी कौन कहता है

बजट जब सारे लग जाएँ वज़ारत की ही कुर्सी पर
तो इस तर्ज़-ए-मईशत को गिरानी कौन कहता है

मोहब्बत के फ़साने आज भी तहरीर होते हैं
बहार-ए-ज़िंदगानी को पुरानी कौन कहता है

मिरी नानी सुनाती थी हिकायत सात परियों की
वो सच्चे प्यार की लोरी सुहानी कौन कहता है

नहीं मिटता मिटाने से किसी से प्यार का रिश्ता
मोहब्बत तो हक़ीक़त है कहानी कौन कहता है

अता उम्र-ए-रवाँ ने की है जो सौग़ात बालों को
उतरती चाँदनी को नौजवानी कौन कहता है

सभी ने आप-बीती और जग-बीती कही लेकिन
मिरे अंदाज़ से सच्ची कहानी कौन कहता है

कुछ ऐसे लोग होते हैं जो मर के भी नहीं मरते
हैं जिन के नाम ज़िंदा उन को फ़ानी कौन कहता है

जो मेरे लब नहीं कहते मिरे अशआ'र कहते हैं
जो दिल तहरीर करता है ज़बानी कौन कहता है

'सबीला' अपने ग़म को मैं छुपा लेती तो हूँ लेकिन
गिराती हैं जो आँखें उन को पानी कौन कहता है
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Sabeela Inam Siddiqui
बाद-ए-सरसर भी क़ुर्बत की चलती रहे दिन निकलता रहे शाम ढलती रहे
ज़ुल्फ़ हाथों से तेरे सँवरती रहे दिन निकलता रहे शाम ढलती रहे

तेरी चाहत गुलाबों की ख़ुश्बू बने मेरे दीवार-ओ-दर में कुछ ऐसी बसे
तेरी महकार कमरे से आती रहे दिन निकलता रहे शाम ढलती रहे

तेरे एहसास की तन पे चादर लिए तेरे हमराह रक़्साँ में ऐसे रहूँ
प्यार की मुझ पे बदली बरसती रहे दिन निकलता रहे शाम ढलती रहे

रूह से रूह का रब्त ऐसा बने जैसे हाथों में तेरे मिरा हाथ हो
फिर मुलाक़ात ख़्वाबों में होती रहे दिन निकलता रहे शाम ढलती रहे

मेरी ग़ज़लों में तेरा ही मज़मून हो मेरी नज़्मों में तो मुझ से बातें करे
यूँ बयाज़-ए-तमन्ना भी भरती रहे दिन निकलता रहे शाम ढलती रहे

प्यार के सात रंगों की क़ौस-ए-क़ुज़ह ले के आए 'सबीला' वो मिलने कभी
ज़िंदगी फिर वहीं रुक के हँसती रहे दिन निकलता रहे शाम ढलती रहे
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Sabeela Inam Siddiqui
कभी तो दिल का कहा दिल से वो सुनेगा ही
ये क़तरा संग में सूराख़ तो करेगा ही

वो मेरे हाथ से बरसात के ज़माने में
पकौड़े खाएगा और चाय भी पिएगा ही

सुहानी शाम किसी दिल-नशीं वादी में
वो दो ही साथ साथ चले चलेगा ही

अभी ये सोच के मैं ज़ुल्म सहती जाती हूँ
कभी तो हाथ तिरे ज़ुल्म का रुकेगा ही

ये दाग़-ए-दिल नहीं जो छुप सके छुपाने से
बदन का ज़ख़्म है अब ख़ून तो बहेगा ही

असीर सब हैं फ़ना के हिसार में लेकिन
ख़ुदा की याद से बेहतर सिला मिलेगा ही

शुऊ'र से ही बशर चाँद पर भी पहुँचा है
ज़माना इल्म की दौलत से तो बढ़ेगा ही

कोई ग़ुरूर में एलान-ए-ख़ुद-सरी कर ले
ख़ुदा के सामने आख़िर को सर झुकेगा ही

'सबीला' तेरे हक़ीक़त बयान करने से
जहाँ पे राज़-ए-जुनूँ एक दिन खुलेगा ही
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Sabeela Inam Siddiqui
वफ़ा के राज़ से पर्दा नहीं उठाऊँगी
मैं दिल के ज़ख़्म तह-ए-दिल से ही छुपाऊँगी

अगर तुम्हारी निगाहों में ये खटकता है
सुनो मैं आज से काजल नहीं लगाऊंगी

उदास दिल हो तो गुलशन भी आह भरता है
ये सच है रोते हुए दिल से मुस्कुराऊँगी

जो मुझ पे गुज़री है अश्कों से वो इबारत है
जो नक़्श दिल में है कैसे उसे मिटाऊँगी

हर एक बात को सुन कर जो अन-सुनी कर दे
उसे मैं दर्द की रूदाद क्या सुनाऊँगी

कभी तो आए वो ऐ ज़िंदगी मिरा बन कर
क़सम ख़ुदा की मैं राहों को भी सजाऊँगी

जो मेरे दिल की सदा ही न सुन सका तो फिर
उसे मैं नौहा-ए-दिल किस तरह सुनाऊँगी

तुम्हारा साथ मुक़द्दर में गर नहीं है लिखा
तो याद बन के मैं दिल में कहीं समाऊँगी

जो ख़्वाब देखे हैं दिल उन से क्यूँ उलझता है
मैं अब ये फ़ल्सफ़ा शायद समझ न पाऊँगी

वो जब मिले तो ये उस से ज़रूर कह देना
वो इस बरस भी न आया तो मर ही जाऊँगी

यक़ीं है रब पे 'सबीला' वो मेरी सुन लेगा
मैं हो के बा-वज़ू हाथों को जब उठाऊँगी
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Sabeela Inam Siddiqui

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