नज़्म: मज़दूर
कौन है यहाँ हमारा किसके हैं हम
ख़जालत है हमको कि मज़दूर हैं हम
तपा तपाकर जिस्म अपना
आहनों पर पिघलाया हमने
नसों से टपकता था लहू जब
मिट्टी के घरौंदे बनाए हमने
लिए बदन पे छाले अब
दश्त-ए-ला-मकाँ फिरते हैं हम
कौन है यहाँ हमारा किसके हैं हम
ख़जालत है हमको कि मज़दूर हैं हम
सुबह होते ही नमक छिड़कता
है सूरज जिनके ज़ख़्मों पे
और रात तंज़ करती हो
मुफ़्लिसी पे जिनकी
आसमाँ की थाली में एक रोटी समझे
बच्चे तकते रहते हों चाँद को
ऐसे बद-क़िस्मत बच्चों के माँ-बाप हैं हम
कौन है यहाँ हमारा किसके हैं हम
ख़जालत है हमको कि मज़दूर हैं हम
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