Urfi Aafaqi

Urfi Aafaqi

@urfi-aafaqi

Urfi Aafaqi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Urfi Aafaqi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
मिले जो मुद्दत के बाद हम तुम न तुम वो तुम थे न हम वो हम थे
थे हम भी ख़ामोश तुम भी गुम-सुम न तुम वो तुम थे न हम वो हम थे

न आँख छलकी न होंट लरज़े न साँस उलझी न दिल ही धड़का
कहाँ वो जज़्बात का तलातुम न तुम वो तुम थे न हम वो हम थे

न प्यारी प्यारी शिकायतें वो न पहले जैसी इनायतें वो
न गालियाँ वो पुर-अज़-तरन्नुम न तुम वो तुम थे न हम वो हम थे

ख़मोशियाँ थीं जो दू-ब-दू थीं ख़मोशियाँ थीं जो चार सू थीं
ख़मोशियाँ थीं जो थीं तकल्लुम न तुम वो तुम थे न हम वो हम थे

वही ज़मीं थी वही फ़लक था वही थीं सुब्हें वही थीं शामें
वही थे ख़ुर्शीद-ओ-माह-ओ-अंजुम न तुम वो तुम थे न हम वो हम थे

हज़ार सदियों की दूरियाँ थीं जो दश्त-ओ-सहरा सी दरमियाँ थीं
कि इस तरफ़ हम और उस तरफ़ तुम न तुम वो तुम थे न हम वो हम थे

रबाब-ए-ग़म फिर उठाओ 'उर्फ़ी' वही ग़ज़ल फिर सुनाओ 'उर्फ़ी'
मिले जो मुद्दत के बाद हम तुम न तुम वो तुम थे न हम वो हम थे
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Urfi Aafaqi
वो ध्यान की राहों में जहाँ हम को मिलेगा
बस एक छलावे सा कोई दम को मिलेगा

अनजानी ज़मीनों से मुझे देगा सदा वो
नैरंग-ए-नवा-शौक़ की सरगम को मिलेगा

मैं अजनबी हो जाऊँगा ख़ुद अपनी नज़र में
जिस दम वो मिरे दीदा-ए-पुर-नम को मिलेगा

जो नक़्श कि अर्ज़ंग-ए-ज़माना में नहीं है
उस दिल के धड़कते हुए अल्बम को मिलेगा

रुत वस्ल की आएगी चली जाएगी लेकिन
कुछ रंग तो यूँ हिज्र के मौसम को मिलेगा

ये दिल कि है ठुकराया हुआ सारे जहाँ का
घर एक यही है जो तिरे ग़म को मिलेगा

पत्थर है तो ठोकर में रहे पा-ए-तलब की
दिल है तो उसी तुर्रा-ए-पुर-ख़म को मिलेगा

गर शीशा-ए-मय है तो हो औरों को मुबारक
है जाम-ए-जहाँ-बीं तो फ़क़त जम को मिलेगा

लहराते रहेंगे चमनिस्ताँ में शरारे
ख़ार ओ ख़स ओ ख़ाशाक ही आलम को मिलेगा

मालूम है 'उर्फ़ी' जो है क़िस्मत में हमारी
सहरा ही कोई गिर्या-ए-शबनम को मिलेगा
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जीने के ढब जब आए तो मरना पड़ा मुझे
किस ग़म से रम किया कि ठहरना पड़ा मुझे

मैं और अपनी जान का दुश्मन नहीं नहीं
ऐसी ही वो अदा थी जो मरना पड़ा मुझे

कुछ ख़ुद मुझे उभार गई रिफ़अत-ए-जमाल
कुछ आप पस्तियों से उभरना पड़ा मुझे

हालाँकि अपने आप से मैं दूर भी न था
कितने ही रास्तों से गुज़रना पड़ा मुझे

ग़ुंचे की तरह शब क़फ़स-ए-रंग-ओ-बू रहा
मानिंद-ए-गुल सहर को बिखरना पड़ा मुझे

अपने ही हाथों आप को खींचा सलीब पर
मातम भी अपना आप ही करना पड़ा मुझे

फिर क्या जो मैं ज़मीं से गया ता-ब-आसमाँ
आख़िर इसी ज़मीं पे उतरना पड़ा मुझे

क्या ढूँडते हो अब मिरे लब पर शगुफ़्तगी
इक ज़ख़्म था कि ख़ुद जिसे भरना पड़ा मुझे

'उर्फ़ी' सुनाओ मुज़्दा मिरे ख़ैर-ख़्वाह को
बिगड़ा ज़माना ये कि सुधरना पड़ा मुझे
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