Yasin Ali Khan Markaz

Yasin Ali Khan Markaz

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Yasin Ali Khan Markaz shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Yasin Ali Khan Markaz's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
जो नज़र किया मैं सिफ़ात में हुआ मुझ पे कब ये अयाँ नहीं
मिरी ज़ात ऐन की ऐन है वहाँ दूसरी का निशाँ नहीं

वही दो जहाँ में है मुफ़्तख़र जैसे ऐनियत की हुई ख़बर
वही हुक्मराँ है जहान में वहाँ कुफ़्र-ओ-दीं का गुमाँ नहीं

रहे ग़ैरियत के हिजाब में जो ख़ुदा-नुमा से नहीं मिले
जो ख़ुदा को उन से तलब किए रही बात उन पे निहाँ नहीं

जिसे हो सुबूत वजूद का वही हक़-शनास है बा-ख़बर
उन्हें जुमला आवे ख़ुदा नज़र वो ख़ुदा को देखे कहाँ नहीं

मैं वतन में आप सफ़र किया जो क़दम को अपनी नज़र किया
मिला अपना आप पता मुझे जहाँ ग़ैरियत का बयाँ नहीं

मैं तो एक 'मरकज़'-ए-दहर हूँ जो ख़ुदा-नुमा के निशान से
जो बताऊँ हक़ का पता जिसे रहे बाक़ी उस को गुमाँ नहीं
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Yasin Ali Khan Markaz
ढूँढ हम उन को परेशान बने बैठे हैं
वो तो पर्दा लिए इंसान बने बैठे हैं

ज़ौक़ हासिल उन्हें होता है हर यक सूरत से
रंग-ओ-बे-रंगी से हर आन बने बैठे हैं

छोड़ मस्जिद को गए दैर में पूजा करने
थे मुसलमान वो रहबान बने बैठे हैं

बात ये है कि हयूला से है सूरत पैदा
हर यक अज्साम में रहमान बने बैठे हैं

ताज़ा हर आन दिखाते हैं वो जल्वा अपना
हर तअय्युन के लिए शान बने बैठे हैं

हैं मसीहा कहीं बीमार कहीं दर्द कहीं
हर तरह से वही दरमान बने बैठे हैं

वही होता है हर यक काम जो वो चाहते हैं
देते हसरत भी हैं अरमान बने बैठे हैं

कुफ्र-ओ-इस्लाम के पर्दे से हैं हर हाल में ख़ुश
वाजिब आईना से इम्कान बने बैठे हैं

सच तो ये है कि हक़ीक़त जो है उन की मालूम
जानते जो हैं वो अंजान बने बैठे हैं

जुमला अदवार ओ शयूनात से जल्वा करते
शान-ए-'मरकज़' में वो सुब्हान बने बैठे हैं
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Yasin Ali Khan Markaz
अपना पता मुझे बता बहर-ए-ख़ुदा तू कौन है
तुझ पे हैं सारे मुब्तला बहर-ए-ख़ुदा तू कौन है

नाम-ए-ख़ुदा सुना किया तेरे सिवा नहीं मिला
सारी सिफ़त से है भरा बहर-ए-ख़ुदा तू कौन है

तेरा हसद तो नाम था हो गया बंदा किस तरह
तेरी ही ज़ात है बक़ा बहर-ए-ख़ुदा तू कौन है

तेरे से हस्त कुल हुई थी तू अदम में बे-निशाँ
हादी मुज़िल है बरमला बहर-ए-ख़ुदा तू कौन है

मालिक-ए-दो-जहाँ है तू चाहे जिसे अता करे
कर दे गदा को बादशा बहर-ए-ख़ुदा तू कौन है

तेरे करम से ऐ शहा मैं ने ख़ुदा-नुमा हुआ
था तू फ़ना बक़ा मिला बहर-ए-ख़ुदा तू कौन है

'मरकज़'-ए-जुमला-काएनात मज़हर-ए-ज़ात-ए-किब्रिया
तेरे सिवा नहीं हुआ बहर-ए-ख़ुदा तू कौन है
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ढूँढता हक़ को दर-ब-दर है तू
वाए अपने से बे-ख़बर है तू

शान-ए-हक़ आश्कार है तन से
मूजिद-ए-कुल्ल-ए-ख़ैर-ओ-शर है तू

एक में क्या वजूद-ए-जुमला-ज़ुहूर
कुल में ख़ुद आप बा-असर है तू

क़ुदरत-ए-कामिला को ग़ौर तो कर
बहर-ए-यकताई का गुहर है तू

मीट अपनी ख़ुदी ख़ुदा को पा
नफ़अ' हासिल हो क्या अगर है तू

मुक़्तदिर आप हर सबब का है
इस लिए हो गया बशर है तू

ख़ैर-ओ-शर के हिजाब में कब तक
ज़ुल्मत-ए-कुफ़्र का सहर है तू

तेरी ही शान-ए-कुल हुवैदा है
बंदा कहता है क्यूँ किधर है तू

आप हर शय में जल्वा-फ़रमा हैं
बे-ख़बर क्या है बा-ख़बर है तू

मुझ पे इल्ज़ाम आ नहीं सकता
हर तरह से इधर उधर है तू

कोई कुछ क़ल्ब क्या करे तुझ को
बे-ग़ुल-ओ-ग़श वो साफ़ ज़र है तू

कह रहा है हमेशा इन्नी अना
जुमला आमा का राहबर है तू

जो है मंज़ूर हो रहा वही
किस नतीजे का मुंतज़र है तू

बिल-यक़ीं हक़ की शान है तेरी
मुख़्तसर ये है मुख़्तसर है तू

नाम तेरा ख़ुदा-नुमा है हिजाब
दीदा-ए-दीद का बसर है तू

कोई पाता नहीं तुझे 'मरकज़'
दू-ब-दू आप जल्वा-गर है तू
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अजब भूल ओ हैरत जो मख़्लूक़ को है
ख़ुदा की तलब शिर्क की जुस्तुजू है

शराब-ए-मोहब्बत में मख़मूर हूँ मैं
पियाला भरा है मुलब्बब सुबू है

पता एक का दो में क्यूँ कर मिलेगा
जो कसरत फ़ना हो तो ख़ुद तू ही तू है

नहीं ग़ैर कोई तशख़्ख़ुस का पर्दा
मन-ओ-तू फ़क़त ग़ैर की गुफ़्तुगू है

है ख़ुद आप मौजूद हर यक सिफ़त से
जुदाई नहीं इस में कुछ मू-ब-मू है

सिफ़त बस्त-ओ-क़ाबिज़ की तुख़्म-ओ-शजर है
जो बू है सो गुल है जो गुल है सो बू है

वो पीर-ए-तरीक़त है कामिल उसी को
ख़ुदा इस के हर आन में रू-ब-रू है

वजूद एक है सूरत उस की मुग़य्यर
है जल्वा उसी का न मैं और तू है

तू 'मरकज़' है आलम में पैदा-ओ-ज़ाहिर
बनाया बनाता है जो कुछ कि तू है
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याद-ए-ख़ुदा से आया न ईमाँ किसी तरह
काफ़िर बने न हम न मुसलमाँ किसी तरह

करते हो वा'दा आने का है आँख मुंतज़र
कब तक गुज़ारे दिन ये है मेहमाँ किसी तरह

आज़ाद इश्क़-ए-यार ने हम को बना दिया
माल-ओ-मता' का हूँ न मैं ख़्वाहाँ किसी तरह

पीते रहो शराब जहाँ तक कि हो सके
शाग़िल न छूटे साक़ी का दामाँ किसी तरह

आ जावें गर नसीब से आलम है नज़्अ' का
निकले हमारे दिल के भी अरमाँ किसी तरह

मर जाऊँ उन के तीर-ए-निगह से नजात हो
गर्दन पे मेरे उन का हो एहसाँ किसी तरह

ज़िंदाँ हैं फँस गया दिल-ए-मुज़्तर निगाह के
बैठे हैं पासबाँ बने मिज़्गाँ किसी तरह

बअ'द-ए-फ़ना भी क़ब्र को मिस्मार कर दिया
इज़हार-ए-रंज का न हो सामाँ किसी तरह

अदवार में अगरचे है 'मरकज़' घिरा हुआ
छोड़े न तुझ को रहमत सुब्हाँ किसी तरह
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