ग़म-ए-हिज्राँ का है मौसम तुम्हारी याद आती है
किसी की शक़्ल में हरदम तुम्हारी याद आती है
हज़ारों दुख दिए जाता है ये वक़्त-ए-सहर हम को
गुलों पर देख कर शबनम तुम्हारी याद आती है
न तो आ पाओगे तुम ही न तो आ पाएँगे हम ही
चलो अच्छा है कम से कम तुम्हारी याद आती है
कोई ज़ंजीर हो, पायल हो या फिर टूटती आवाज़
कहीं भी सुन लें गर, पैहम तुम्हारी याद आती है
उलझ कर रह गए इस कश्मकश में क्यूँ ये होता है
जो वो सुलझाए पेच-ओ-ख़म तुम्हारी याद आती है
हुआ जो था या फिर जैसे यही इक 'दर्द' खाए है
पर इतना जानते हैं हम तुम्हारी याद आती है
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