Dattatriya Kaifi

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Dattatriya Kaifi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Dattatriya Kaifi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
ग़म-ए-दुनिया नहीं फिर कौन सा ग़म है हम को
फ़िक्र-ओ-अंदेशा-ए-उक़बा से भी रम है हम को

दहन-ए-ग़ुन्चा से पैग़ाम-ए-वफ़ा सुनते हैं
ग़ाज़ा-ए-आरिज़-ए-सद-हस्त-ए-अदम है हम को

क़ौल ये सच है कि ख़ुद-कर्दा का दरमाँ क्या है
दावर-ए-हश्र पे नाहक़ का भरम है हम को

अगले लुक़्मों में नहीं क़ंद-ए-मुकर्रर का मज़ा
सख़्त बे-लुत्फ़-ए-हयात-ए-पैहम है हम को

ज़ीस्त की कश्मकश और मर्ग की क़ुर्बत का अलम
आमद-ओ-रफ़्त-ए-नफ़स तेग़-ए-दो-दम है हम को

बैठे बैठे जो कटे फिर तग-ओ-दौ से हासिल
हर-नफ़स जादा-ए-हस्ती में क़दम है हम को

ज़र्रे ज़र्रे में नज़र आती है तस्वीर-ए-सनम
सर-ब-सर रू-कश-ए-सद-दैर-ओ-हरम है हम को

बार-ए-ग़म बार से एहसाँ के बदल जाता है
तौक़-ए-गर्दन कशिश-ए-काफ़-ए-करम है हम को

हाल-ए-दिल लिखते न लोगों की ज़बाँ में पड़ते
वज्ह-ए-अंगुश्त-नुमाई ये क़लम है हम को

आँख क्या डालिए उस गुल पे जो कुम्हला जाए
'कैफ़ी' अपना ही ये दिल बाग़-ए-इरम है हम को
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कभी है आज और कल कभी है भला ये अहद-ए-विसाल क्या है
हो वा'दा ईफ़ा कि तर्क-ए-उल्फ़त ये रोज़-मर्रा की टाल क्या है

ज़बान बिगड़ी है आप ही की हमारा नुक़सान क्या है इस में
ज़रा तुम्हीं पूछूँ दिल से अपने भला ये तर्ज़-ए-मक़ाल क्या है

जो माँगा इक बोसा मैं ने उन से तो बोले क्या तू सड़ी हुआ है
ज़रा ये बातें सुनो तो लोगो जवाब क्या है सवाल क्या है

उन्हें सर-ए-रह अकेला पा कर ये बोला छाती से मैं लगा कर
कि अब तो फ़रमा दें बंदा-पर्वर विसाल में क़ील-ओ-क़ाल क्या है

हैं तर्क-ए-उल्फ़त में हम भी राज़ी ये कह दो बे-खटके उस सनम से
बुतों का इस हिन्द की ज़मीं पर ख़ुदा की रहमत से काल क्या है

कड़ा रखे आदमी जो दिल को तो झेल ले हर कड़ी को आसाँ
बंधी हुई हो जो अपनी हिम्मत तो काम कोई मुहाल क्या है

ये कैसी हैं ठंडी साँसें 'कैफ़ी' कहीं तो आया है आप का दिल
ये मुँह निकल आया क्यूँ ज़रा सा बताइए तो कि हाल क्या है
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हाल-ए-दिल कहने को कहते हो तो कब तुम मुझ को
हाए जिस वक़्त नहीं ताब-ए-तकल्लुम मुझ को

ख़ाक हो कर भी वही हसरत-ए-पा-बोस रही
हो गई मौज-ए-सबा मौज-ए-तलातुम मुझ को

ज़ोफ़ से हाल ये पतला है रह-ए-उल्फ़त में
सैल-ए-गिर्या पे भी हासिल है तक़द्दुम मुझ को

कहते हैं ज़िक्र-ए-शब-ए-वस्ल पे क्या जानिए क्यूँ
कभी शर्म और कभी आता है तबस्सुम मुझ को

मो'जिज़ा हज़रत-ए-ईसा का था बे-शुबह दुरुस्त
कि मैं दुनिया से गया उठ जो कहा क़ुम मुझ को

सैल-ए-गिर्या की बदौलत ये हुआ घर का हाल
ख़ाक तक भी न मिली बहर-ए-तयम्मुम मुझ को

उन को गिन गिन के शब-ए-हिज्र बसर होती है
तारे आँखों के न क्यूँ होवें ये अंजुम मुझ को

है गज़ी गाढ़ा ही 'कैफ़ी' का शिआ'र और विसार
नहीं दरकार है ये अतलस-ओ-क़ाक़ुम मुझ को
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Dattatriya Kaifi
बताएँ क्या तुझ को चश्म-ए-पुर-नम हुआ है क्या ख़ूँ आरज़ू का
बना गुल-ए-दाग़-ए-यास-ओ-हसरत जो दिल में क़तरा बचा लहू का

दबे जो घुट घुट के दिल में अरमाँ वो बर्क़ बन कर फ़लक पे तड़पे
जो वलवला जी में रह गया था वो बुलबुला अब है आब-ए-जू का

अबस है तो चारा-गर-ए-परेशाँ न तुझ से कुछ बन पड़ेगा दरमाँ
कि हो तो तार-ए-नफ़स से सामाँ जराहत-ए-दिल के हो रफ़ू का

खुला लब-ए-गोर से ये उक़्दा कि ख़्वाब थी सब नुमूद-ए-हस्ती
वुक़ूफ़ ना-महरूमी-ए-मंज़िल कमाल है मेरी जुस्तुजू का

न तुझ को मस्त-ए-हवा-ए-गुलशन ख़िज़ाँ में ऐ अंदलीब देखा
नहीं तू शैदाई बाग़-ओ-गुल का मगर फ़िदाई है रंग-ओ-बू का

उसे न फिर कुछ दिया दिखाई नज़र पड़ा वो जमाल जिस को
खुला हक़ीक़त का राज़ जिस पर न उस को यारा था गुफ़्तुगू का

है नफ़-ए-ज़ात और नस्ख़-ए-हस्ती विसाल-ए-जानाँ की शर्त-ए-अव्वल
भरा मनाज़िर से है जहाँ सब जो सिर्फ़ दर्शन का तू है भूका

तिलिस्म-ए-दैर-ओ-हरम है तुझ पर हनूज़ दिल्ली है दूर नादाँ
वहाँ तिरा ख़ाक दिल लगेगा वो है सरासर मकान हू का

ख़बर किसे सुब्ह-ओ-शाम की है तअ'ईनात और क़ुयूद कैसे
नमाज़ किस की वहाँ किसी को ख़याल तक भी नहीं वुज़ू का

नहीं मुहीत-ए-रुसूम-ओ-मिल्लत है बे-निशाँ मंज़िल-ए-हक़ीक़त
वहाँ न सिमरन की हतकड़ी है न तौक़-ए-ज़ुन्नार है गुलू का

हैं ग़र्क़-ए-बहर-ए-मय-ए-मोहब्बत वहाँ है 'कैफ़ी' ये सब की हालत
है दख़्ल साक़ी की बज़्म में क्या सुराही-ओ-साग़र-ओ-सुबू का
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पानी सियाने देते हैं क्या फूँक फूँक कर
दिल सोज़-ए-ग़म ने ख़ाक किया फूँक फूँक कर

छिड़काव आब-ए-तेग़ का है कू-ए-यार में
पाँव इस ज़मीं पे रखिए ज़रा फूँक फूँक कर

देखा न आँख-भर के नज़र के ख़याल से
लेते हैं हम तो नाम तिरा फूँक फूँक कर

होगा न साफ़ झूटी हवा-ख़्वाहियों से दिल
यूँ दिल का कब ग़ुबार उड़ा फूँक फूँक कर

बाद-ए-नफ़स से दाग़-ए-दिल-ए-सर्द जल उठे
हम ने जिला दिया है दिया फूँक फूँक कर

उल्टा है क्या इस आह-ए-शरर-बार का असर
दिल ही बुझा दिया है मिरा फूँक फूँक कर

पीरी में आएगी न कभी ताक़त-ए-शबाब
ऐ पीर लाख पारे को खा फूँक फूँक कर

शैताँ का धोका ज़ाहिद-ए-पुर-फ़न पे क्यूँ न हो
पीता है छाछ दूध-जला फूँक फूँक कर

आतिश-बयानी-ए-लब-ए-'कैफ़ी' ने बज़्म में
दुश्मन के दिल को ख़ाक किया फूँक फूँक कर
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Dattatriya Kaifi
फ़िदा अल्लाह की ख़िल्क़त पे जिस का जिस्म ओ जाँ होगा
वही अफ़्साना-ए-हस्ती का मीर-ए-दास्ताँ होगा

यक़ीं जिस का कलाम-ए-क़ुद्स अज्र-उल-मोहसिनीं पर हो
निको-कारी का उस की क़ाएल इक दिन कुल जहाँ होगा

हयात-ए-जावेदानी पाएगा वो इश्क़-ए-सादिक़ में
जो अन्क़ा की तरह मादूम होगा बे-निशाँ होगा

सफ़र राह-ए-मोहब्बत का चहल-क़दमी समझते हो
अभी देखोगे तुम इक इक क़दम पर हफ़्त-ख़्वाँ होगा

हमें गुलज़ार-ए-जन्नत है अज़ीज़ो बाग़-ए-दिल अपना
समझते हो कि जाँ-परवर है सेहन-ए-गुलिस्ताँ होगा

जो ईसार और हमदर्दी शिआर अपना बना लोगे
तो काँटा भी तुम्हें रश्क-ए-गुल-ए-बाग़-ए-जिनाँ होगा

ये क़िस्सा शम्अ ओ परवाने का बस मा-वशा तक है
वो हो जाएगा बज़्म-आरा तो फिर कोई कहाँ होगा

अदा-ए-फ़र्ज़ बर-हक़ पर खपा दो दोस्तो जाँ तक
ये वो सौदा है आख़िर को नहीं जिस में ज़ियाँ होगा

अज़ल से वाइज़ो के क़ौल दुनिया सुनती आई है
अमल का वक़्त भी कोई कभी ऐ मेहरबाँ होगा

तग़ाफ़ुल और सितम के बदले है अंदाज़ दिलदारी
सँभल ऐ शौक़-ए-बे-पायाँ तिरा अब इम्तिहाँ होगा

तही-दस्तान-ए-क़िस्मत को तो दम लेना क़यामत है
यहाँ कुछ हो गया इंसाफ़-ए-आशिक़ जो वहाँ होगा

न समझो खेल इस को बज़्म 'कैफ़ी' में वो जादू है
यहाँ गर ज़ाहिद-ए-ख़ुश्क आएगा पीर-ए-मुग़ाँ होगा
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Dattatriya Kaifi
जिस को ख़बर नहीं उसे जोश-ओ-ख़रोश है
जो पा गया वो राज़ वो गुम है ख़मोश है

है एक शोर-ए-बुलबुल-ओ-सौत-ए-शगुफ़्ता-गुल
ये सूर-ए-आफ़ियत है वो यासीन-ए-होश है

आई थी शक्ल दिल के जो आइना में नज़र
बंद आँख इस से और ज़बाँ भी ख़मोश है

ये हाल हो कि आप में आलम को देख ले
गर दिल में तेरे इश्क़ की कसरत का जोश है

कब है कमाल-ए-इश्क़ पे हावी ग़म-ए-फ़िराक़
एक एक ज़र्रा क़ैस को महमिल ब-दोश है

वारफ़्ता-ए-हवा-ए-तरब याद रख उसे
जो दर्द की खटक है नवेद-ए-सरोश है

बर्क़-ए-जमाल नाफ़ा-ए-मा-ओ-शुमा हुई
क्या ज़िक्र-ए-शम-ए-तूर कि वो भी ख़मोश है

क्या है तिरा हुदूस-ओ-क़िदम हम तो हैं वहाँ
हस्ती जहाँ अदम के लिए ख़्वाब-नोश है

उश्शाक़ जामा पहने हैं तस्लीम-ए-इश्क़ का
दस्तार-ओ-जुब्बा शैख़ का हाँ पर्दा-पोश है

तेरे जहाँ से महफ़िल-ए-रिंदाँ जुदा है शैख़
हर एक मुग़बचा यहाँ कस्र-ए-फ़रोश है

साक़ी की एक नज़र ही हमें मस्त कर गई
किस को सुराही-ओ-ख़म-ओ-साग़र का होश है

अमृत के झाले मर किया ला-तक़्नतू की हैं
इस बज़्म में ये मश्ग़ला-ए-नाओ-नोश है

'कैफ़ी' ये अहल-ए-दहर से कह दो पुकार कर
इस बज़्म में वो आए कि जो सरफ़रोश है
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Dattatriya Kaifi
साक़िया किस को हवस है कि पियो और पिलाओ
अब वो दिल ही न रहा और उमंगें न वो चाव

रहने दे ज़िक्र ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल को नदीम
उस के तो ध्यान से भी होता है दिल को उलझाओ

कूचा-ए-इश्क़ में जाना न कभी भूल के तुम
है वहाँ आब-ए-दम-ए-तेग़ का हर जा छिड़काव

क्या ज़रूरत कि हसीनों के दहन की ख़ातिर
तुम कमर बाँध के मुल्क-ए-अदमिस्ताँ तक जाओ

क्यूँ मिटो नक़्श-ए-क़दम साँ किसी रफ़्तार पे तुम
बैठे बिठलाए ग़रज़ क्या है कि इक हश्र उठाओ

किस तरह कोई उन्हें राह पे लाए यारब
और बरगश्ता हुए जाते हैं जितना समझाओ

ना-ख़ुदा बन के ख़ुदा पार कर इस का बेड़ा
बे-तरह फँस गई है हिन्द की मंजधार में नाव

ये नहीं है कि नहीं क़ाबिलिय्यत कुछ उन में
हिम्मतें हारने का हो गया कुछ उन का सुभाव

ग़र्ब है मशरिक़-ए-ख़ुर्शेद-ए-उलूम-ओ-हिक्मत
अब ये लाज़िम है कि लौ अपनी उधर को ही लगाओ

जो क़दामत पे उड़े बैठे हैं वो हैं गुमराह
उन से बचना हैं ग़ज़ब उन के उतार और चढ़ाओ

एशिया के तो तुम्हें नाम से कहना ही नहीं
वही सूरत है उसे कितना ही उलटो पलटाओ

रस्म-ओ-मज़हब से न तुम ग़ैर बनो आपस में
हो चलत में कोई या ठाह में सम पर मल जाओ

बस करो रहने भी दो वाज़-ओ-नसीहत 'कैफ़ी'
नासेहों को तो यहाँ पड़ती हैं बाज़ार के भाव
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ज़िंदगी का किस लिए मातम रहे
मुल्क बसता है मिटे या हम रहे

दिल रहे पीरी में भी तेरा जवाँ
आख़िरी दम तक यही दम-ख़म रहे

चाहिए इंसान का दिल हो ग़नी
पास माल ओ ज़र बहुत या कम रहे

क्या इसी जन्नत की ये तहरीस है
जिस में कुछ दिन हज़रत-ए-आदम रहे

वस्ल से मतलब न रख तू इश्क़ का
दम भरे जा दम में जब तक दम रहे

लाग इक दिन बन के रहती है लगाव
हाँ लगावट कुछ न कुछ बाहम रहे

इश्क़ ने जिस दिल पे क़ब्ज़ा कर लिया
फिर कहाँ उस में नशात ओ ग़म रहे

शर्क़ से जब नूर चमका तो कहाँ
बर्ग-ए-गुल पर क़तरा-ए-शबनम रहे

हुस्न की दुनिया का है दाएम शबाब
हश्र तक उस का यही आलम रहे

है सुरूर-ए-हुस्न 'कैफ़ी' ला-यज़ाल
दर-ख़ुर-ए-ज़र्फ़ उस में बेश ओ कम रहे
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पर्दा-दार हस्ती थी ज़ात के समुंदर में
हुस्न ख़ूब खुल खेला इस सिफ़त के मंज़र में

हुस्न इश्क़ में है या इश्क़ हुस्न में मुज़्मर
जौहर आइने में या आईना है जौहर में

इश्क़-ए-महशर-आरा की तूर पर गिरी बिजली
हुस्न-ए-लन-तरानी कि रह सका न चादर में

देख ऐ तमाशाई गुल है रंग-ओ-बू बिल्कुल
इम्तियाज़ ना-मुम्किन है अर्ज़ से जौहर में

गुल में और बुलबुल में कौन जाने क्या गुज़री
चश्म-पोश मस्ती थी इस बरहना मंज़र में

उपची बनाते हैं हुस्न को सुख़न गो क्यूँ
काट इन अदाओं का कब है तेग़-ओ-ख़ंजर में

फ़र्त-ए-सोज़-ए-उल्फ़त में देख कर सकूँ दिल का
बिजलियाँ मचलती हैं बादलों के महशर में

चारागर को हैरत है अरतक़ाए-वहशत से
पाँव में जो चक्कर था आ रहा है वो सर में

हसरत आरमान की हो कहना से गुंजाइश
है वही मिरे दिल में है वही मिरे सर में

हों वो रिंद या सूफ़ी मस्त उस की धुन में हैं
जाने कितने मय-ख़ाने भर दिए हैं कौसर में

चर्ख़ क्या उतर आया आज फ़र्श-ए-गीती पर
रिंद भी हैं चक्कर में मय-कदा भी चक्कर में

मय वो होश पर अफ़्गन और नज़र वो सहबा-पाश
मस्त क्यूँ न हो 'कैफ़ी' एक दो ही साग़र में
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राहत कहाँ नसीब थी जो अब कहीं नहीं
वो आसमाँ नहीं है कि अब वो ज़मीं नहीं

हो जोश सिद्क़-ए-दिल में तो राहत बग़ल में हो
क़ाएम ये आसमान रहे या ज़मीं नहीं

हुब्ब-ए-वतन को हिम्मत-ए-मर्दाना चाहिए
दरकार आह सीना-ए-अंदोह-गीं नहीं

ख़ून-ए-दिल-ओ-जिगर से इसे सींच ऐ अज़ीज़
किश्त-ए-वतन है ये कोई किश्त-ए-जवीं नहीं

हक़-गोई की सदा थी न रुकनी न रुक सकी
कब वार की सिनानें गलों में चुभीं नहीं

दाग़-ए-ग़म-ए-वतन है निशान-ए-अज़ीज़-ए-ख़ल्क़
दिल पर न जिस का नक़्श हो ये वो नगीं नहीं

जंग-ए-वतन में सिद्क़ के हथियार का है काम
दरकार इस में असलहा-ए-आहनीं नहीं

घर-बार तेरा पर तू किसी चीज़ को न छेड़
ये बात तो हरीफ़ों की कुछ दिल-नशीं नहीं

जिस बात पर अज़ीज़ अड़े हैं अड़े रहें
कहने दें उन को ऊँचे गले से नहीं नहीं

क्या जाने दिल जिगर को मिरे जो ये कह गया
दामन भी तार तार नहीं आस्तीं नहीं

माबूद है वतन हूँ परस्तार उसी का मैं
दैर ओ हरम में जो झुके ये वो जबीं नहीं

'कैफ़ी' इसी से ख़ैरियत-ए-हिन्द में है देर
हुब्ब-ए-वतन का जोश कहीं है कहीं नहीं
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मक़्सद हासिल नहीं हो या हो
जो होना है जल्द ऐ ख़ुदा हो

उल्फ़त है पास-ए-वज़्अ' का नाम
मरते मर जाओ पर निबाहो

दिल में नहीं ख़ूब मैल रखना
जो शिकवा गिला हो बरमला हो

क्या होता है फ़र्श बोरिया से
लाज़िम है कि क़ल्ब बे-रिया हो

इक जाम ही तो पिला दे लिल्लाह
ऐ पीर-ए-मुग़ाँ तेरा भला हो

दरकार उसे मदद है किस की
जिस को अल्लाह का आसरा हो

उस दिल की जलन जो देख पाए
शम-ए-सोज़ाँ चराग़-पा हो

क्या और भला कहूँ मैं तुम को
तुम हज़रत-ए-इश्क़ बद-बला हो

कहने को तो कह गए हो सब कुछ
अब कोई जवाब दे तो क्या हो

दिल ज़ीस्त से सर्द हो गया है
ऐ सोज़-ए-जिगर तिरा बुरा हो

बे-ऐब कोई नहीं है 'कैफ़ी'
गर हो तो वो ज़ात-ए-किब्रिया हो
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