Davarka Das Shola

Davarka Das Shola

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Davarka Das Shola shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Davarka Das Shola's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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एक रहज़न को अमीर-ए-कारवाँ समझा था मैं
अपनी बद-बख़्ती को मंज़िल का निशाँ समझा था मैं

तेरी मा'सूमी के सदक़े मेरी महरूमी की ख़ैर
ऐ कि तुझ को सूरत-ए-आराम-ए-जाँ समझा था मैं

दुश्मन-ए-दिल दुश्मन-ए-दीं दुश्मन-ए-होश-ओ-हवास
हाए किस ना-मेहरबाँ को मेहरबाँ समझा था मैं

दोस्त का दर आ गया तो ख़ुद-बख़ुद झुकने लगी
जिस जबीं को बे-नियाज़-ए-आस्ताँ समझा था मैं

क़ाफ़िले का क़ाफ़िला ही राह में गुम कर दिया
तुझ को तो ज़ालिम दलील-ए-रह-रवाँ समझा था मैं

मेरे दिल में आ के बैठे और यहीं के हो गए
आप को तो यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ समझा था मैं

इक दरोग़-ए-मस्लहत-आमेज़ था तेरा सुलूक
ये हक़ीक़त थी मगर ये भी कहाँ समझा था मैं

ज़िंदगी इनआ'म-ए-क़ुदरत ही सही लेकिन इसे
क्या ग़लत समझा अगर यार-ए-गराँ समझा था मैं

फेर था क़िस्मत का वो चक्कर था मेरे पाँव का
जिस को 'शो'ला' गर्दिश-ए-हफ़्त-आसमाँ समझा था मैं
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Davarka Das Shola
मिरी बे-क़रारी मिरी आह-ओ-ज़ारी ये वहशत नहीं है तो फिर और क्या है
परेशाँ तो रहना मगर कुछ न कहना मोहब्बत नहीं है तो फिर और क्या है

ग़म-ए-ज़िंदगी नाला-ए-सुब्ह-गाही मिरे शैख़ साहब की वाही तबाही
अगर उन के होते वजूद-ए-इलाही हक़ीक़त नहीं है तो फिर और क्या है

तिरी ख़ुद-पसंदी मिरी वज़्अ'-दारी तिरी बे-नियाज़ी मिरी दोस्त-दारी
जुनून-ए-मुरव्वत ब-हर-रंग तारी मुसीबत नहीं है तो फिर और क्या है

ग़रीबों को बद-हाल-ओ-मजबूर रखना उन्हें फ़िक्रमंद और रंजूर रखना
उन्हें अपना कहना मगर दूर रखना ये हिकमत नहीं है तो फिर और क्या है

तिरी राह में हर क़दम जान देना मुसीबत भी आए तो सर अपने लेना
मोहब्बत की कश्ती ब-हर-हाल खेना रिफ़ाक़त नहीं है तो फिर और क्या है
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Davarka Das Shola
मेरी मंज़िल कहाँ है क्या मा'लूम
इंतिहा ग़म है इब्तिदा मा'लूम

तुम नहीं मेरे अब ये राज़ खुला
मैं तुम्हारा हूँ अब हुआ मा'लूम

दिल की पर्वा करे कोई कब तक
चाहता क्या है ये ख़ुदा मा'लूम

दूर से गुल को देखना क्या है
यूँ तो होता है ख़ुशनुमा मा'लूम

पास आए तो अस्ल हुस्न खुले
दूर की चीज़ राज़-ए-ना-मा'लूम

तुम को चाहा बड़ा क़ुसूर किया
सहव ज़ाहिर है और ख़ता मा'लूम

बात बनती नज़र नहीं आती
उन के तेवर से हो गया मा'लूम

वज़्अ'-दारी से चुप रहूँ वर्ना
है मुझे राज़ आप का मा'लूम

कौन है जिस को ख़ू-ए-मौला का
राज़-ए-सर-बस्ता हो सका मा'लूम

इस क़दर जल्द मौत आएगी
हाए इंसाँ को ये न था मा'लूम

मैं वफ़ा भी करूँ गिले भी करूँ
मुझ को होता है ये बुरा मा'लूम

क्या कहें किस लिए रहे मा'तूब
हम को अब तक नहीं ख़ता मा'लूम

चल के 'शो'ला' से पूछिए क्यूँकर
जुर्म साबित हुआ सज़ा मा'लूम
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Davarka Das Shola
ज़ीस्त बे-वादा-ए-अनवार-ए-सहर है कि जो थी
ज़ुल्मत-ए-बख़्त ब-हर-रंग-ओ-नज़र है कि जो थी

इश्क़ बर्बाद-कुन-ए-राहत-ए-दिल है कि जो था
शोख़ी-ए-दोस्त ब-अंदाज़-ए-दिगर है कि जो थी

आज भी कोई नहीं पूछता अहल-ए-दिल को
आज भी ज़िल्लत-ए-अर्बाब-ए-नज़र है कि जो थी

ख़ुद-परस्ती का रिवाज आज भी है आम कि था
रास्ती आज भी मोहताज-ए-असर है कि जो थी

आज भी जज़्बा-ए-इख़्लास परेशाँ है कि था
आज भी दीदा-वरी ख़ाक-बसर है कि जो थी

आज भी इल्म-ओ-हुनर की नहीं कोई वक़अत
अब भी ना-क़द्री-ए-असहाब-ए-हुनर है कि जो थी

आज भी मेहर-ओ-वफ़ा की नहीं क़ीमत कोई
आज भी मंज़िलत-ए-कीसा-ए-ज़र है कि जो थी

कामरानी पे है नाज़ाँ हवस-ए-हेच मदार
आशिक़ी आज भी बा-दीदा-ए-तर है कि जो थी

रूह-ए-इख़्लास तो दर-बंद है बे-पुर्सिश-ए-हाल
मिदहत-ए-हुस्न सर-ए-राहगुज़र है कि जो थी

साफ़-गोई को समझते हैं यहाँ ऐब अब भी
ज़ेहनियत आज भी आलूदा-ए-शर है कि जो थी

अस्प-ए-ताज़ी को मयस्सर नहीं चारा 'शो'ला'
और तन-ज़ेबी-ओ-आराइश-ए-ख़र है कि जो थी
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