JaiKrishn Chaudhry Habeeb

JaiKrishn Chaudhry Habeeb

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JaiKrishn Chaudhry Habeeb shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in JaiKrishn Chaudhry Habeeb's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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सनम से मोहब्बत भी बेज़ारियाँ भी
जुनूँ-कोशियाँ भी हैं होश्यारियाँ भी

मोहब्बत की दुनिया मोहब्बत का आलम
कि हुश्यारियाँ भी हैं सरशारियाँ भी

कभी सिर्फ़ पत्थर कभी देवता है
हैं ख़ुद्दारियाँ भी परस्तारियाँ भी

मोहब्बत के राज़-ओ-नियाज़ अल्लाह अल्लाह
हैं शिकवे गिले भी वफ़ादारियाँ भी

है पुर-लुत्फ़ मंज़िल तो पुर-ख़ार राहें
कि आसानियाँ भी हैं दुश्वारियाँ भी

जराहत भी जाँ-बख़्श मरहम भी दिल-कश
दिल-आज़ारियाँ भी हैं ग़म-ख़्वारियाँ भी

ज़रा सिंफ़-ए-नाज़ुक की हिम्मत तो देखो
हैं कमज़ोरियाँ भी जिगर-दारियाँ भी

है वा'दों में लज़्ज़त बहानों में जिद्दत
वफ़ाएँ भी हैं और जफ़ा-कारियाँ भी

मोहब्बत ख़ता भी है उज़्र-ए-ख़ता भी
पशेमानियाँ भी हैं लाचारियाँ भी

'हबीब' आदमी भी अजब चीसताँ है
मोहब्बत भी है और सियह-कारियाँ भी
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
उमीद-ए-दीद काम आए न आए
सहर आई है शाम आए न आए

मयस्सर है निगाह-ए-लुत्फ़-ए-साक़ी
हमें क्या दौर-ए-जाम आए न आए

शराब आँखों ही आँखों में न पी लूँ
मिरे लब तक वो जाम आए न आए

सबा करती तो है कोशिश बराबर
तिरा तर्ज़-ए-ख़िराम आए न आए

कली चटकी पहुँच जाएगी बुलबुल
सबा ले कर पयाम आए न आए

मिरे दिल में है उस का लुत्फ़-ए-गुफ़्तार
बुत-ए-शीरीं-कलाम आए न आए

सरापा पैकर-ए-तस्लीम हूँ मैं
कभी उन का सलाम आए न आए

उन्हें आती है मेरी याद अब भी
ज़बाँ पर मेरा नाम आए न आए

बना ले जावेदाँ उल्फ़त से इस को
कभी फिर ऐसी शाम आए न आए

मैं राही हूँ है चलना काम मेरा
कोई दिलकश मक़ाम आए न आए

निगाहें उन की सब कुछ कह गई हैं
कोई ले कर पयाम आए न आए

'हबीब' अहल-ए-ज़बाँ से हम-सुख़न हूँ
वो अंदाज़-ए-कलाम आए न आए
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
हदीस-ए-दिलबराँ है और मैं हूँ
जहाँ-अंदर-जहाँ है और मैं हूँ

मुदावा-ए-ग़म-ए-फ़ुर्क़त नहीं कुछ
बस उन की दास्ताँ है और मैं हूँ

न हमदम है न कोई हम-नवाँ है
दिल अपना राज़दाँ है और मैं हूँ

भरी महफ़िल में भी बैठा हूँ तन्हा
मिरा दर्द-ए-निहाँ है और मैं हूँ

नहीं दर्द-आश्ना जिस से कहूँ कुछ
मिरे मुँह में ज़बाँ है और मैं हूँ

बहार आई चमन में आई होगी
यहाँ दौर-ए-ख़िज़ाँ है और मैं हूँ

नहीं बाक़ी वो नग़्मा और तराना
बस इक हू का समाँ है और मैं हूँ

न वो साक़ी न वो हम-मशरब अपने
जुमूद-ए-मय-कशाँ है और मैं हूँ

कभी इस दिल की ज़द में था ज़माना
अब इक उतरी कमाँ है और मैं हूँ

नहीं मोहलत कि दम भर मुड़ के देखूँ
मिरी उम्र-ए-रवाँ है और मैं हूँ

न ख़ुद अपना न अपने हैं शब-ओ-रोज़
रज़ा-ए-दीगराँ है और मैं हूँ

हुआ बेज़ार नाक़ूस-ए-अज़ाँ से
फ़रेब-ए-ईन-ओ-आँ है और मैं हूँ

कभी का जल चुका गो आशियाना
ख़याल-ए-आशियाँ है और मैं हूँ

'हबीब' अब ज़िंदगी की शाम आई
ग़म-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ है और मैं हूँ
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
उस शोख़ के लतीफ़ इशारों को देखिए
बिखरे हुए हसीन नज़ारों को देखिए

हर एक शय में उस का ही जल्वा है रू-ब-रू
ये एक देखिए कि हज़ारों को देखिए

नज़रों में गर समाया है उस यार का जमाल
दर दर गली गली में निगारों को देखिए

ये किस के रंग-ओ-रूप का अक्स-ए-जमील है
छाई हुई चमन में बहारों को देखिए

नैरंगी-ए-हयात है हर सम्त जल्वा-गर
तूफ़ाँ को देखिए कि किनारों को देखिए

पर्दे उठा के आज शबिस्तान-ए-ऐश के
हाँ इक निगाह दर्द के मारों को देखिए

उल्फ़त में तेरी हार चुके हैं जो जान-ओ-दिल
अपने कभी तो सीना-फ़गारों को देखिए

क्यों उम्र-ए-मुख़्तसर को करें वक़्फ़-ए-रंज-ओ-ग़म
दम भर तो ज़िंदगी की बहारों को देखिए

दम भर कहीं थमें न ये रोके कहीं रुकें
इस क़ुल्ज़ुम-ए-हयात के धारों को देखिए

सैर-ए-चमन न यार न मुतरिब न शग़्ल-ए-मय
क्या देख कर 'हबीब' बहारों को देखिए
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
न रंग-ओ-बू है न कैफ़-ओ-नग़्मा नज़र में भी दिलरुबा नहीं है
मैं कैसे समझूँ बहार आई कि ग़ुंचा दिल का खिला नहीं है

तिरी मोहब्बत के ख़्वाब देखे तिरी मोहब्बत के गीत गाए
तेरी मोहब्बत में क्या न पाया तेरी मोहब्बत में क्या नहीं है

छुपाऊँ ज़ख़्मों के अपने दिल में न आए नोक-ए-मिज़ा पे आँसू
करो न रुस्वा यूँ अपने ग़म को कि ये तो रस्म-ए-वफ़ा नहीं है

वो साज़-ए-दिल जो कभी था छेड़ा तिरी नज़र ने ब-नाज़-ओ-शोख़ी
वो अब भी नग़्मा-सरा है लेकिन निकलती कोई सदा नहीं है

वो गुज़रे वक़्तों की अब हैं यादें सहारे जिन के मैं जी रहा हूँ
कहो न मुझ से कि उन में क्या है ये मुझ से पूछो कि क्या नहीं है

न जाने तेरी तलाश में क्यों भटक भटक कर मैं रह गया हूँ
वगर्ना हर ज़र्रा-ए-ज़मीं पर जहाँ तिरा नक़्श-ए-पा नहीं है

हयात की शाम काश मेरी तिरी ही यादों में बीत जाए
कि वक़्त-ए-आख़िर ये कह सकूँ मैं कि ज़िंदगी से गिला नहीं है

ये बुग़्ज़-ओ-नफ़रत के शो'ले हर सू बना रहे हैं वतन को दोज़ख़
हमीं हैं चुप-चाप और बे-हिस कि जैसे कुछ भी हुआ नहीं है

मुझे ज़रूरत 'हबीब' क्या है चराग़-ए-दैर-ओ-हरम की आख़िर
जो दिल में भड़का था शो'ला-ए-ग़म वो जल रहा है बुझा नहीं है
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
साज़-ए-उल्फ़त है मिरे साज़-ए-जिगर होने तक
हुस्न दिलकश है मिरे ज़ौक़-ए-नज़र होने तक

अज़्म-ए-इंसाँ ने सितारों पे कमंदें डालीं
मंज़िलें दूर हैं सरगर्म-ए-सफ़र होने तक

बारहा नन्हा सा दिल ख़ून हुआ ज़ेर-ए-फ़लक
ग़ुंचे पर गुज़री है क्या क्या गुल-ए-तर होने तक

रिफ़अतें कौन सी है छू न सके जिन को ख़याल
हद-ए-पर्वाज़ है तख़्ईल के पर होने तक

ज़िंदगी तल्ख़ हक़ीक़त है कि एक ख़्वाब-ए-हसीं
कौन समझा है इसे उम्र बसर होने तक

कर गई तुझ को परेशाँ मिरी आशुफ़्ता-सरी
ये यक़ीं था न तिरी आँख के तर होने तक

हम सर-ए-शाम जलाते हैं तसव्वुर के चराग़
कौन देखेगा तिरी राह सहर होने तक

तेरे वा'दे कभी शर्मिंदा-ए-ईफ़ा न हुए
वर्ना जीता तिरे आने की ख़बर होने तक

वा'दा बे-कैफ़ है बे-रंग है गुलज़ार 'हबीब'
दिल है सूना सा तिरी लुत्फ़-ए-नज़र होने तक
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
तलाश-ए-रहबर न ख़ौफ़-ए-मंज़िल न फ़िक्र कोई है जिस्म-ओ-जाँ की
जुनूँ सलामत तो किस को पर्वा रहे वफ़ा के हर इम्तिहाँ की

जो तुम ने देखा है मुस्कुरा कर क़दम ज़माने के रुक गए हैं
उस इक निगाह-ए-करम से पहले कहाँ थी मुझ पर नज़र जहाँ की

बयान गरचे था दर्द दिल का मगर था कैफ़-ओ-असर से ख़ाली
जो नाम आया है उस में तेरा बढ़ी है लज़्ज़त भी दास्ताँ की

रविश पे महव-ए-ख़िराम हो कर जगाए क्या क्या न तुम ने जादू
कली में रंगत गुलों में निकहत न ज़ीनत ऐसी थी गुल्सिताँ की

जमाल-ए-जानाँ की जल्वा-गाहें जहाँ भी जाऊँ वहाँ पे पाऊँ
झुकाऊँ सर को जहाँ भी अपने वहीं पे चौखट है आस्ताँ की

कभी न इंसाँ के दिल में झाँका कभी न खोदा ख़ज़ाना-ए-दिल
ज़मीं के रुख़ से हटाए पर्दे तो बात की हम ने आसमाँ की

ज़रूर आएँगी फिर बहारें चमन में फिर रक़्स-ओ-रंग होगा
न बाद-ए-सर-सर के होंगे झोंके न यूरिशें होंगी फिर ख़िज़ाँ की

ये जानता हूँ कि उस का मुद्दत से तिनका तिनका बिखर रहा है
न जाने फिर क्यों ये याद पैहम है मेरे उजड़े से आशियाँ की

जो आरज़ू को 'हबीब' पुख़्ता तो क़ुर्ब-ओ-दूरी का फ़र्क़ कैसा
मिरे तसव्वुर ने ख़त्म कर दी जो दूरी हम में थी दरमियाँ की
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
शिकवा नहीं गिला नहीं रब्त कोई बहम नहीं
रस्म-ए-सलाम क्या जहाँ पुर्सिश-ए-हाल-ए-ग़म नहीं

गो कि नहीं निगाह में दिल से नहीं हो दूर तुम
दीदा-ए-दिल के वास्ते फ़ासला बेश-ओ-कम नहीं

बज़्म से आप क्या गए रौनक़-ए-बज़्म ले गए
अब वो सुरूर-ए-दिल कहाँ आप गए तो हम नहीं

आप की याद आ गई दिल पे ख़ुशी सी छा गई
अब मुझे ग़म से वास्ता अब मुझे कोई ग़म नहीं

पहला सा वो करम कहाँ लुत्फ़ की वो नज़र कहाँ
है ये सितम की इंतिहा कोई नया सितम नहीं

उस की निगाह-ए-मस्त का अब भी ख़ुमार है मगर
साक़ी-ए-दिल-नवाज़ का पहला सा वो करम नहीं

दामन इधर है तार तार रुख़ पे नहीं उधर नक़ाब
इश्क़ अगर है बे-वक़ार हुस्न का भी भरम नहीं

मंज़िल-ए-ज़िंदगी न पूछ सिर्फ़ सफ़र है ज़िंदगी
पाँव उठा क़दम बढ़ा होश सँभाल थम नहीं

देख कर उन के इल्तिफ़ात रह गई दिल की दिल में बात
होश गया जो वो गए आए तो दम में दम नहीं

मिन्नतें शैख़-ओ-बरहमन कीजिए किस लिए 'हबीब'
दिल है मिरी निगाह में दैर नहीं हरम नहीं
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
दर्द मिन्नत-कश-ए-दरमाँ हो ज़रूरी तो नहीं
ज़ख़्म मरहम का ही ख़्वाहाँ हो ज़रूरी तो नहीं

दिल की गहराई में दाग़ों के चमन खिलते हैं
मेरा हर ज़ख़्म नुमायाँ हो ज़रूरी तो नहीं

आग है दोनों तरफ़ गरचे बराबर की लगी
फिर भी मुझ सा वो परेशाँ हो ज़रूरी तो नहीं

हिज्र में तेरे तसव्वुर के मज़े क्या कहने
हर कोई दीद का ख़्वाहाँ हो ज़रूरी तो नहीं

मुंतज़िर मैं तिरे आने का रहूँगा हर-दम
झूटा हर इक तिरा पैमाँ हो ज़रूरी तो नहीं

दिल से चाहूँ मैं जिसे वो भी तो चाहे मुझ को
पूरा ऐसा कभी अरमाँ हो ज़रूरी तो नहीं

मौत आती है कभी मादर-ए-मुशफ़िक़ की तरह
इस से हर शख़्स गुरेज़ाँ हो ज़रूरी तो नहीं

इश्क़ ने नासेह-ए-मुश्फ़िक़ की सुनी ही कब थी
अक़्ल ही दिल की निगहबाँ हो ज़रूरी तो नहीं

खेते किस वास्ते कश्ती को हो साहिल साहिल
न यहाँ ख़तरा-ए-तूफ़ाँ हो ज़रूरी तो नहीं

मैं समझता तो हूँ अंजाम-ए-मोहब्बत को 'हबीब'
दिल इस अंजाम से लर्ज़ां हो ज़रूरी तो नहीं
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
ज़िंदगी को इक मुसलसल इम्तिहाँ कहते रहे
लग़्ज़िश-ए-पा को ही मंज़िल का निशाँ कहते रहे

मस्लहत थी या कि थी वो इश्क़ की मजबूरियाँ
उस बुत-ए-नामेहरबाँ को मेहरबाँ कहते रहे

चुपके चुपके कह गई जो दास्ताँ को दास्ताँ
उस निगाह-ए-शौक़ को हम बे-ज़बाँ कहते रहे

इक तबस्सुम इक निगह और एक क़तरा अश्क का
बस इन्हीं पर कहने वाले दास्ताँ कहते रहे

ज़र्द पत्ते ख़ुश्क कलियाँ फूल मुरझाए हुए
ये हैं अक्स-ए-क़ल्ब-ए-वीराँ हम ख़िज़ाँ कहते रहे

अपने ही ज़ौक़-ए-नज़र ने बख़्शी उन को दिलबरी
वर्ना क्या है जिस को हम हुस्न-ए-बुताँ कहते रहे

गोशा-ए-दिल में वो मेरे सब सिमट कर रह गया
ग़म का इक तूफ़ाँ जिसे अहल-ए-जहाँ कहते रहे

जल्वा-गर रग रग में है और दीदा-ओ-दिल में निहाँ
हम जिसे ख़ल्वत-नशीन-ए-ला-मकाँ कहते रहे

प्यार के लम्हे जो उन की बज़्म में गुज़रे 'हबीब'
हम हयात-ए-ख़िज़्र पर उन को गराँ कहते रहे
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
तिरी मोहब्बत में ग़म जो आए तो उस से बढ़ कर ख़ुशी नहीं है
वफ़ा की मंज़िल के ख़ार में भी गुलों से कम दिल-कशी नहीं है

न तुझ में जुरअत है रिंद की सी न तुझ में वुसअ'त दिल-ओ-नज़र की
अज़ीम शय है ये रस्म-ए-रिंदी ये सिर्फ़ बादा-कशी नहीं है

लिबास-ए-नौ में हवस ने आ कर मज़ाक़-ए-हुस्न-ओ-नज़र हैं बदले
वो इश्क़ में है न सरफ़रोशी वो हुस्न में दिलबरी नहीं है

तुझी से गर्मी थी महफ़िलों की तुझी से थी वो चमन की सैरें
नहीं वो महफ़िल में लुत्फ़ बाक़ी गुलों के लब पर हँसी नहीं है

नहीं ये मुमकिन कि उस के दर से तू ख़ाली दामन ही लौट जाए
तलब ही तेरी है ख़ाम अब तक नज़र भी दर पर जमी नहीं है

ख़िरद की गो हैं हज़ार आँखें है दिल की सिर्फ़ एक आँख लेकिन
जो दिल की बुझ जाए शम-ए-उल्फ़त तो फिर कहीं रौशनी नहीं है

ग़म-आश्ना तेरा दिल नहीं है तो आए उस में गुदाज़ कैसे
जो साज़ दिल का नहीं है टूटा तो उस में फिर नग़्मगी नहीं है

करोगे क्या तुम 'हबीब' आख़िर हयात-ए-तूल-ओ-तवील ले कर
तबस्सुम-ए-गुल के एक लम्हे में क्या कोई ज़िंदगी नहीं है
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
अपने हाल-ए-दिल पे ख़ुद ही मुस्कुरा सकता हूँ मैं
कब किसी के रहम का एहसाँ उठा सकता हूँ मैं

आशियाँ को फूँक सकती है अगरचे बिजलियाँ
शाख़-ए-गुल पर बार बार इस को बना सकता हूँ मैं

दास्तान-ए-ग़म को कह सकता हूँ सिर्फ़ इक आह मैं
और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ मैं

तुम अगरचे बख़्श सकते हो मुझे तन्हाइयाँ
अपनी तन्हाई को भी महफ़िल बना सकता हूँ मैं

बे-रुख़ी से तोड़ सकते हो दिल-ए-नाज़ुक को तुम
और शिकस्ता-साज़ दिल पर गुनगुना सकता हूँ मैं

हर क़दम पर ज़ीस्त ने आ कर झिंझोड़ा है मुझे
ज़िंदगी से क्या कभी आँखें चुरा सकता हूँ मैं

इतनी देखी हैं बहारें इतनी देखी है ख़िज़ाँ
अब तो इन का फ़र्क़ भी दिल से मिटा सकता हूँ मैं

तुम को ये दा'वा कि तुम हर अंजुमन की जान हो
ज़ो'म है मुझ को कि हर महफ़िल पे छा सकता हो मैं

वो निगाह-ए-लुत्फ़ गर तुझ को मयस्सर हो 'हबीब'
ज़िंदगी को इक नई मंज़िल पे ला सकता हूँ मैं
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
साया क़दम क़दम पे है हर रौशनी के साथ
सुब्हें छुपी हैं पर्दे में हर तीरगी के साथ

आसान कर दी तेरे तसव्वुर ने मंज़िलें
गुज़रे रह-ए-हयात से हम बे-ख़ुदी के साथ

सज्दे दिल-ओ-नज़र के तो हर जा बिखर गए
दैर-ओ-हरम का काम ही क्या बंदगी के साथ

इक दर्द था कि बज़्म से ले कर तेरी चले
दिल याँ कि वाँ लुटा के चले हम ख़ुशी के साथ

तेरी निगाह-ए-नाज़ के क़ुर्बान जाइए
लपका है दिल में शो'ला मगर दिलकशी के साथ

तेरी तलब में दार-ओ-रसन से गुज़र गए
खेला है हम ने खेल कोई ज़िंदगी के साथ

साग़र में अपनी आँखों की मस्ती भी घोल दे
मय भी दो-आतिशाँ हो तिरी दिलबरी के साथ

फ़ित्ने से कम नहीं है बिगड़ना तिरा मगर
निखरा है हुस्न और भी कुछ बरहमी के साथ

अपना बना के यूँ मुझे छोड़ा है राह में
दो-गाम जैसे कोई चले अजनबी के साथ

ऐ शिकवा-संज तेरा ही दामन नहीं वसीअ'
क्या ने'मतें 'हबीब' मिलीं ज़िंदगी के साथ
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
उल्फ़त के फ़साने माज़ी के कुछ भूले कुछ याद आ भी गए
ग़म के बादल दिल पे मिरे कुछ छट भी गए कुछ छा भी गए

जब इश्क़ की वादी में हम तुम ले कर हाथों में हाथ चले
गो ख़ार भी उलझे दामन में कुछ लम्हे गुल बरसा भी गए

जब राज़-ए-मोहब्बत मुझ से सुना कुछ वो भी पसीजे दम भर को
चुप रहते हुए कुछ कह भी गए और कहते हुए कतरा भी गए

बाज़ी में मोहब्बत की अक्सर कुछ मरहले ऐसे आए हैं
जब जीत के भी हम हार गए और हार के हम कुछ पा भी गए

वो आए और कुछ हाल न पूछा दिल का दर्द भी कुछ न सुना
यूँ देख कि उन को दिल के कँवल कुछ खिल भी गए मुरझा भी गए

उलझी सी हैं इश्क़ की राहें जोखिम सी कुछ इश्क़ की मंज़िल
इन राहों में कुछ खो भी गए और मंज़िल को कुछ पा भी गए

गो लाख जतन हम ने भी किए पर क़ल्ब की तस्कीं हो न सकी
अरमानों से दिल ख़ाली न हुआ कुछ घुट भी गए कुछ पा भी गए

क्या जाने हम क्या कह बैठे वो कह न सके जो कहना था
हम प्यार के ताने-बाने को सुलझा भी गए उलझा भी गए

ये हुस्न की मस्ती उन की 'हबीब' ये क्या ही अनोखी मस्ती है
कुछ ख़ुद भी हुए बे-ख़ुद उस से कुछ बे-ख़ुद हम को बना भी गए
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb
तुझे अपनी फ़ज़ाओं पर पशेमाँ कौन देखेगा
तिरा ग़म सह के भी तुझ को परेशाँ कौन देखेगा

न आएँ वो नज़र अंदर तो बाहर की तरफ़ देखूँ
तसव्वुर है तो फिर तस्वीर-ए-जानाँ कौन देखेगा

किसी के नूर की जब दीदा-ओ-दिल में तजल्ली है
तो फिर बज़्म-ए-जहाँ के अब चराग़ाँ कौन देखेगा

सुनेगा कौन इस शोर-ए-जहाँ में धड़कनें दिल की
मिरा भीगा हुआ अश्कों से दामाँ कौन देखेगा

जहाँ सुब्ह-ए-वतन जाती है रंग-ओ-नूर बरसाती
वहाँ बे-कैफ़ सी शाम-ए-ग़रीबाँ कौन देखेगा

तिरे दर पर जमी है हर परेशाँ-हाल की नज़रें
न तू देखे तो फिर हाल-ए-परेशाँ कौन देखेगा

जहाँ ने सिर्फ़ ये देखा कि साहिल पर सलामत हूँ
उठा है जो मिरे सीने में तूफ़ाँ कौन देखेगा

'हबीब' आँखों को अपनी बंद कर के ही चलें वर्ना
सर-ए-बाज़ार बिकता ख़ून-ए-इंसाँ कौन देखेगा
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JaiKrishn Chaudhry Habeeb

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