Lais Quraishi

Lais Quraishi

@lais-quraishi

Lais Quraishi shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Lais Quraishi's shayari and don't forget to save your favorite ones.

Followers

0

Content

20

Likes

1

Shayari
Audios
  • Ghazal
किसी गुमाँ किसी इम्काँ का रुख़ नहीं करती
निगाह जल्वा-ए-अर्ज़ां का रुख़ नहीं करती

बसी हुई है जो आबादियों में बर्बादी
जुनूँ की मौज बयाबाँ का रुख़ नहीं करती

सबा को फ़स्ल-ए-बहाराँ से क्या मिला आख़िर
वो गुल खिले कि गुलिस्ताँ का रुख़ नहीं करती

हिसार-ए-वक़्त में अपना वजूद है महबूस
असीरी अब रह-ए-ज़िंदाँ का रुख़ नहीं करती

मिरे अज़ीज़ों में रुस्वा मिरी रिफ़ाक़त है
जभी ये हल्क़ा-ए-याराँ का रुख़ नहीं करती

फ़ज़ा तो नूर-ए-सदाक़त से जगमगाती है
ये रौशनी दिल इंसाँ का रुख़ नहीं करती

वो कुछ नहीं कोई फ़र्सूदा सी रिवायत है
वो फ़िक्र जो नए उनवाँ का रुख़ नहीं करती

हवा भी कितनी ज़माना-शनास है ऐ 'लैस'
हर एक सेहन-ए-गुलिस्ताँ का रुख़ नहीं करती
Read Full
Lais Quraishi
उम्र-भर ख़्वाब-ए-मोहब्बत से न बेदार हुए
इसी किरदार से हम साहब-ए-किरदार हुए

कभी काँटों की जराहत से भी आराम मिला
लाला-ओ-गुल भी कभी बाइस-ए-आज़ार हुए

आदमियत के ख़द-ओ-ख़ाल को ज़ीनत न मिली
सारे आईन फ़क़त नक़्श-ब-दीवार हुए

हाए वो हुस्न किसी ने भी न देखा जिस को
हाए वो राज़ जो रुस्वा सर-ए-बाज़ार हुए

कितने दुश्मन थे ज़माने में हमारे लेकिन
अपनी ही हस्ती से हम बरसर-ए-पैकार हुए

दोस्तो एक तुम्हारी भी रिया-कारी से
हम को होना था ख़बर-दार ख़बर-दार हुए

नौहा-ए-ज़ात का ये भी तो इक अंदाज़ हुआ
अश्क आँखों में नहीं आए तो अशआ'र हुए

बात कुछ यूँ है कि हिम्मत ही न हारी हम ने
मेरे पिंदार-ए-ख़ुदी पर तो बहुत वार हुए

रंग-ओ-बू पाँव की ज़ंजीर हुए जाते हैं
जा नसीम-ए-सहरी हम तो गिरफ़्तार हुए

हम कि सर-गर्म-ए-सफ़र थे रहे सर-गर्म-ए-सफ़र
मरहले तो कभी आसाँ कभी दुश्वार हुए

अब तो ना-क़द्री-ए-अर्बाब-ए-हुनर है ऐ 'लैस'
आप क्या सोच के इस अहद में फ़नकार हुए
Read Full
Lais Quraishi
कहीं से भी सुख़न-ए-मो'तबर नहीं आता
नज़र हमें कोई अहल-ए-नज़र नहीं आता

हवा-ए-दश्त ये तासीर-ए-ख़ुद-फ़रामोशी
बहुत दिनों से तसव्वुर में घर नहीं आता

अजब शनावर-ए-बहर-ए-वजूद हैं हम भी
हमें ज़मान-ओ-मकाँ का सफ़र नहीं आता

लहू से लफ़्ज़ की तख़्लीक़ हम नहीं करते
जभी तो अपने बयाँ में असर नहीं आता

ये सोचते हैं कि मंज़िल-रसी से क्या हासिल
जब अपने साथ कोई हम-सफ़र नहीं आता

ये अर्सा-गाह-ए-तलब क़ुर्बतों की दुनिया है
यहाँ हम ऐसा कोई बे-हुनर नहीं आता

दरीचे रोज़ ही खुलते हैं बंद होते हैं
मगर वो चेहरा-ए-रंगीं नज़र नहीं आता

हिजाब कौन सा माने' है कुछ नहीं मा'लूम
मैं चाहता हूँ वो आए मगर नहीं आता

तिलिस्म-ए-तीरा-शबी 'लैस' किस तरह टूटे
कोई भी ले के पयाम-ए-सहर नहीं आता
Read Full
Lais Quraishi
मनाज़िर-ए-शब-ए-रफ़्ता ख़याल-ओ-ख़्वाब हुए
वो अश्क थे कि सितारे सभी ख़राब हुए

वो ना-ख़ुदा कि ख़ुदाई का जिन को दा'वा था
सफ़ीने उन की हिमाक़त से ज़ेर-ए-आब हुए

हम अहल-ए-दर्द ज़माने के हाथ क्या आते
कि हम तो अपने लिए भी न दस्तियाब हुए

तलाश-ए-जाम-ए-तरब में कहाँ कहाँ न गए
पिए बग़ैर भी हम तो बहुत ख़राब हुए

हम उन के ऐब को क्या और क्यूँ अयाँ करते
जो बे-ज़मीर थे वो ख़ुद ही बे-नक़ाब हुए

फ़रेब ही से नवाज़ा है उन रफ़ीक़ों ने
मिरी जनाब में आ कर जो बारयाब हुए

तमाम उम्र मज़ाक़-ए-जुनूँ जो रखते थे
रह-ए-ख़िरद में वही लोग कामयाब हुए

हमारा सब्र है बे-इंतिहा तो हैरत क्या
कि 'लैस' हम पे सितम भी तो बे-हिसाब हुए
Read Full
Lais Quraishi
तुम ने भूले से कभी ये नहीं सोचा होगा
हम जो बिछड़ेंगे तो क्या हाल हमारा होगा

आ गए हो तो उजाला है मिरी दुनिया में
जाओगे तुम तो अंधेरा ही अंधेरा होगा

ये न कहिए कि मिरी आँख से टपका आँसू
छोड़िए भी कोई टूटा हुआ तारा होगा

क्या ख़बर थी की तिरे शहर से पहले ऐ दोस्त
रात आ जाएगी और राह में दरिया होगा

ख़्वाब लब ख़्वाब जबीं ख़्वाब अदा ख़्वाब हया
इतने ख़्वाबों में कोई ख़्वाब तो सच्चा होगा

दिल के आईने में कर अक्स-ए-तमन्ना न तलाश
तू मुक़ाबिल है तो हैरत के सिवा क्या होगा

पैकर-ए-इश्क़ तो फ़रहाद भी था मजनूँ भी
और वो शख़्स कि तू ने जिसे चाहा होगा

आज तो ख़ुश हूँ बहुत ख़ुश हूँ बहुत ही ख़ुश हूँ
इस तसव्वुर में मैं काँप उठता हूँ कल क्या होगा

एक वो हैं जिन्हें ख़ल्वत में भी लुत्फ़-ए-जल्वत
हाए वो शख़्स जो महफ़िल में भी तन्हा होगा

फ़िक्र अंजाम-ए-मोहब्बत की है तौहीन ऐ 'लैस'
वही होगा मिरी क़िस्मत में जो लिक्खा होगा
Read Full
Lais Quraishi
अहल-ए-जहाँ के साथ वफ़ा या जफ़ा करूँ
मेरी समझ में कुछ नहीं आता है क्या करूँ

ये दर्द-ए-दिल तो हासिल-ए-उम्र-दराज़ है
मैं इस को अपनी ज़ात से क्यूँ कर जुदा करूँ

दुनिया यही करेगी तो दुनिया से पेशतर
मजरूह क्यूँ न ख़ुद ही मैं अपनी अना करूँ

दुनिया में कौन है जो नहीं है मिरे ख़िलाफ़
इक तुम ही रह गए हो तुम्हें भी ख़फ़ा करूँ

हर ज़ाविए से ज़ीस्त ने रुस्वा किया मुझे
किस रुख़ से अपनी ज़ात का अब सामना करूँ

एहसान जो उठाए हैं औरों के वास्ते
औरों पे हैं वो क़र्ज़ मगर मैं अदा करूँ

आँखों को नींद की भी रिफ़ाक़त नहीं नसीब
मैं शम्अ' तो नहीं कि सहर तक जला करूँ

हसरत ही रह गई कि बहारों के दरमियाँ
तेरे बग़ैर भी तो कभी ख़ुश रहा करूँ

बेगानगी को छोड़ के फ़ितरत भी हँस पड़े
आदम के नाम पर कोई ऐसी ख़ता करूँ

जब कर्ब-ए-आगही में हूँ ऐ 'लैस' आज-कल
इस कर्ब-ए-आगही से किसे आश्ना करूँ
Read Full
Lais Quraishi
ये आरज़ू हैं हम कोई आरज़ू करते
असीर ख़ुद को न हम दाम-ए-रंग-ओ-बू करते

इ'ताब-बीं जो हमारे हैं नुक्ता-चीं हम पर
कहीं जो मिलते तो हम खुल के गुफ़्तुगू करते

वो आइना जो करे हर्फ़-गीरी-ए-किरदार
जो हाथ आए तो लोगों के रू-ब-रू करते

कहीं सुराग़-ए-ख़ुलूस-ओ-वफ़ा अगर मिलता
तो अपनी ज़ात को हम वक़्फ़-ए-जुस्तुजू करते

हम आज अश्क-ब-दामाँ जो हैं तो रोना क्या
तमाम-उम्र ही गुज़री है हा-ओ-हू करते

मिसाल-ए-आइना रखते जो दिल में अक्स-ए-जमील
कभी तबाह न शीशे की आबरू करते

ख़राब होते ख़राबे में और क्या होता
हुज़ूर-ए-साक़ी अगर हम सुबू सुबू करते

हमें भी काश जो तौफ़ीक़-ए-एज़दी होती
तो हम भी कौसर-ओ-तसनीम से वुज़ू करते

यक़ीं जो होता कि होंगे हलाक सिद्क़-ओ-वफ़ा
तो एहतिमाम से मरने की आरज़ू करते

हमें भी रास जो आती शगुफ़्तगी दिल की
तो 'लैस' हम भी कभी जुरअत-ए-नुमू करते
Read Full
Lais Quraishi
इतनी मुश्किल में भी अहबाब न डालें मुझ को
कि सँभलना भी न चाहूँ तो सँभालें मुझ को

ग़म-ए-दौराँ ग़म-ए-जानाँ ग़म-ए-जाँ एक हुए
डर रहा हूँ ये कहीं मार न डालें मुझ को

मुनफ़रिद मेरी तबीअत है ये हालात कहीं
रविश-ए-आम के साँचे में न ढालें मुझ को

मैं तो इस पर भी हूँ राज़ी कि तिरे शहर के लोग
मेरे बनते नहीं अपना ही बना लें मुझ को

आप मुझ से किसी ता'बीर की फिर बात करें
पहले इस ख़्वाब-ए-तमन्ना से जगा लें मुझ को

नहीं मा'लूम कि कल तक मैं रहूँ या न रहूँ
मेहरबाँ आज ही जी-भर के सता लें मुझ को

गर्दिशों के लिए अब तक न ये मुमकिन न हुआ
किसी सूरत मिरे मेहवर से हटा लें मुझ को

इन बुलंदी के मकीनों को मयस्सर ही नहीं
'लैस' वो हाथ जो पस्ती से उठा लें मुझ को
Read Full
Lais Quraishi
ये मसअला है और कोई मसअला नहीं
अपना हरीफ़ मैं हूँ कोई दूसरा नहीं

कल मुझ पे खुल गया तिरा हुस्न-ए-मुनाफ़िक़त
इस सानेहे के बा'द कोई सानेहा नहीं

मुफ़्लिस नहीं है ज़ेहन-ए-तही-दस्त हूँ तो क्या
दस्त-ए-तलब दराज़ कहीं भी किया नहीं

हर-गाम-ओ-हर-नफ़स रहे दरपेश मरहले
ज़ौक़-ए-सफ़र गवाह कि मैं भी रुका नहीं

ऐ मस्लहत-पसंद हमारा भी तेरे साथ
हर-चंद राब्ता है मगर राब्ता नहीं

दुनिया से चंद रोज़ में सब कुछ तो मिल गया
मिलना अब और क्या है जो अब तक मिला नहीं

मुमकिन नहीं कि आएँ अज़ाएम में लग़्ज़िशें
उफ़्तादा वक़्त ही तो है उफ़्ताद-पा नहीं

छोटा हूँ इस लिए मुझे एहसाँ हैं सब के याद
मोहसिन को भूल जाऊँ मैं इतना बड़ा नहीं

अहवाल वाक़ई तो है ख़ुद ही ज़बान-ए-जाँ
लेकिन सर-ए-ग़ुरूर कहीं भी झुका नहीं

मैं तुझ को याद आऊँ और आऊँ तमाम-उम्र
ऐ दोस्त मैं बुरा हूँ पर इतना बुरा नहीं

जौ बोने वाले बो के तो जौ चल दिए मगर
कहते हैं अब के फ़स्ल में गंदुम उगा नहीं

ख़्वाब-ए-बक़ा की बस यही ता'बीर है कि 'लैस'
दुनिया में सिर्फ़ एक फ़ना को फ़ना नहीं
Read Full
Lais Quraishi
मुस्कुरा सकता नहीं आँसू बहा सकता नहीं
ज़िंदगी अब मैं तिरे एहसाँ उठा सकता नहीं

जो शिकस्त-ए-आरज़ू पर मुस्कुरा सकता नहीं
ज़िंदगी की अज़्मतों का राज़ पा सकता नहीं

तालिबान-ए-रंग-ओ-बू काँटों से दामन-कश न हों
शाख़-ए-गुल तक यूँ किसी का हाथ जा सकता नहीं

तुझ से मिल कर जाने क्यूँ होता है ये मुझ को गुमाँ
तुझ को खो सकता हूँ लेकिन तुझ को पा सकता नहीं

मुतमइन हूँ मैं कि ज़िंदा है मिरी तब-ए-ग़यूर
मेरी ख़ुद्दारी पे कोई हर्फ़ आ सकता नहीं

शम-ए-गिर्यां को भला क्या अज़मत-ए-ग़म की ख़बर
कोई परवाना कभी आँसू बहा सकता नहीं

तुझ से मिलने की तमन्ना है कि तुझ से रह के दूर
ए'तिबार-ए-हस्ती-ए-मौहूम आ सकता नहीं

'लैस' मैं रखता हूँ पहलू में दिल-ए-दर्द-आश्ना
भूल कर भी मैं किसी का दिल दुखा सकता नहीं
Read Full
Lais Quraishi
बे-क़स्द सफ़र जाते हैं मा'लूम नहीं क्यूँ
फिर ख़ुद ही ठहर जाते हैं मा'लूम नहीं क्यूँ

हम प्यार से जीने की दुआ देते हैं जिन को
वो लोग भी मर जाते हैं मा'लूम नहीं क्यूँ

कुछ लोग तुझे देख के ऐ फ़स्ल-ए-बहाराँ
बा-दीदा-ए-तर जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

इक वहम समझते थे हक़ीक़त को जो कल तक
अब ख़्वाब से डर जाते हैं मा'लूम नहीं क्यूँ

उतरे हुए चेहरों को भी ये कहते सुना है
कुछ हम से भी डर जाते हैं मा'लूम नहीं क्यूँ

इक सिलसिला अश्क है शबनम मगर इस से
गुलज़ार निखर जाते हैं मा'लूम नहीं क्यूँ

मंज़िल की तरफ़ राह-ए-मोहब्बत के मुसाफ़िर
बे-रख़्त-ए-सफ़र जाते हैं मालूम नहीं क्यूँ

कुछ देख के कुछ सोच के कुछ लोग जहाँ से
चुप-चाप गुज़र जाते हैं मा'लूम नहीं क्यूँ

कश्ती को डुबो कर उसी कश्ती के मुहाफ़िज़
ख़ुद पार उतर जाते हैं मा'लूम नहीं क्यूँ

घर में कोई आराम की सूरत नहीं फिर भी
थक-हार के घर जाते हैं मा'लूम नहीं क्यूँ

हाँ अक्स-ए-रुख़-ए-संग-ज़दा से भी तो ऐ 'लैस'
आईने सँवर जाते हैं मा'लूम नहीं क्यूँ
Read Full
Lais Quraishi
तेरी जफ़ा हुई कि जहाँ का ग़ज़ब हुआ
हम पर तो जो सितम भी हुआ बे-सबब हुआ

इस साअ'त-ए-सईद को क्या नाम दीजिए
इंसाँ असीर-ए-वक़्त के ज़िंदाँ में जब हुआ

शोला-सिफ़त हैं रक़्स में अपने चमन के फूल
इस आलम-ए-बहार में ये क्या ग़ज़ब हुआ

शायद यही मज़ाक़-ए-तलब की है इंतिहा
दुनिया-ए-रंग-ओ-बू में भी दिल बे-तलब हुआ

मुंसिफ़ को मस्लहत की ज़बाँ रास आ गई
गो फ़ैसला हुआ मगर इंसाफ़ कब हुआ

उस को नसीब हो न सका रिश्ता-ए-ख़ुलूस
जो क़ाइल-ए-क़ज़िया-ए-हसब-ओ-नसब हुआ

जारी है एक तीरगी-ओ-रौशनी की जंग
जब से शुऊर-ए-सिलसिला-ए-रोज़-ओ-शब हुआ

हद-ए-निगाह तक कहीं शो'ले कहीं धुआँ
ये ख़ाक-ओ-ख़ूँ का खेल गुलिस्ताँ में कब हुआ

इस हादसे पे आप का जो तब्सिरा भी हो
मैं आश्ना-ए-महफ़िल-ए-ऐश-ओ-तरब हुआ

कैसे हो तुम को लज़्ज़त-ए-आज़ाद जाँ-नसीब
दुश्वार मरहलों से गुज़रना ही कब हुआ

कितने अज़ीम लोग तह-ए-ख़ाक हो गए
तू भी हुआ जो 'लैस' तो फिर क्या अजब हुआ
Read Full
Lais Quraishi
बारहा यूरिश-ए-अफ़्कार ने सोने न दिया
फ़िक्र आज़ाद है आज़ार ने सोने न दिया

बंद थीं दाएरा-ए-ख़्वाब में आँखें अपनी
फ़िक्र की गर्दिश-ए-पर्कार ने सोने न दिया

थी तसव्वुर में निहाँ-ख़ाना-ए-दिल की तस्वीर
रात-भर दीदा-ए-बेदार ने सोने न दिया

मुझ से थे बर-सर-ए-पैकार मिरे ज़ेहन-ओ-ज़मीर
मुझ को बेदारी-ए-किरदार ने सोने न दिया

कोई मंज़र था कि था मंज़र-ए-रंगीं का फ़रेब
क्या कहीं ख़्वाब-ए-पुर-असरार ने सोने न दिया

मुझ पे इस तरह से रौशन थी हक़ीक़त अपनी
उम्र-भर चश्म-ए-ख़बर-दार ने सोने न दिया

मैं ने कुछ धूप में जलते हुए चेहरे देखे
फिर मुझे साया-ए-दीवार ने सोने न दिया

रात-भर बारिश-ए-इल्हाम रही है दिल पर
सुब्ह तक अब्र-गुहर-बार ने सोने न दिया

'लैस' मौज़ू-ए-सुख़न फ़िक्र-ए-बशर थी हम थे
और फिर गर्मी-ए-गुफ़्तार ने सोने न दिया
Read Full
Lais Quraishi
नहीं ये बात कि पर्वाज़ का इरादा नहीं
फ़ज़ा-ए-गुलशन-ए-हस्ती मगर कुशादा नहीं

मिज़ाज-ए-इश्क़ तो अपना है ए'तिदाल-पसंद
यही रविश है कभी कम नहीं ज़ियादा नहीं

ख़िज़ाँ में भी मिरा नश्शा उतर नहीं सकता
कि ये है जोश-ए-जुनूँ कोई जोश-ए-बादा नहीं

शुऊर-ओ-फ़िक्र में आज़ाद है मिज़ाज मिरा
मिरे बदन पे किसी और का लबादा नहीं

निगाह चाहिए तहरीर हो ख़फ़ी की जली
किताब-ए-ज़ीस्त का कोई वरक़ भी सादा नहीं

रह-ए-हयात में दानिस्ता मिस्ल-ए-शम्अ' जले
हमारी ज़ात का ईसार बे-इरादा नहीं

न ज़ाद-ए-राह की ख़्वाहिश न राहबर की तलब
हमारे वास्ते दुश्वार कोई जादा नहीं

पड़ा जो वक़्त तो ग़ैरों ने मेरा साथ दिया
मिरे शरीक मिरे अहल-ए-ख़ानवादा नहीं

बिसात-ए-दहर पे क्या चाल कामयाब चले
तिरी नज़र में अगर अज़्मत-ए-पियादा नहीं

जहाँ में मिलने को मिलते हैं यूँ तो सब से 'लैस'
मगर किसी से भी मक़्सूद इस्तिफ़ादा नहीं
Read Full
Lais Quraishi
कई पयाम बरा-ए-सुकून-ए-जाँ तो मिले
मगर तमाम हुई अपनी दास्ताँ तो मिले

कोई तो समझे मिरे कर्ब का लब-ओ-लहजा
ये आरज़ू है मुझे कोई हम-ज़बाँ तो मिले

कोई फ़ज़ा कोई मौसम हो हम से हो मंसूब
बहार अगर नहीं मिलती हमें ख़िज़ाँ तो मिले

मक़ाम-ए-शुक्र है मेरे लिए कि आख़िर-कार
मिरे हरीफ़ों में कुछ अहल-ए-ख़ानदाँ तो मिले

हूँ ग़म-नसीब तो क्या ग़म कि राह-ए-हस्ती में
तलाश-ए-हक़्क़-ओ-सदाक़त में हमरहाँ तो मिले

यही बहुत है ख़िज़ाँ को ख़िज़ाँ जो कहते हैं
कुछ ऐसे फूल हमें ज़ेब-ए-गुलसिताँ तो मिले

शिकस्ता-पा हैं तो क्या हम तो सर के बल जाएँ
मगर ये बात कोई मीर-ए-कारवाँ तो मिले

हिकायत-ए-दिल-ए-दर्द-आश्ना सुनाऊँगा
तिरी नज़र से मुझे जुरअत-ए-बयाँ तो मिले

ये ज़िंदगी के बयाबाँ में धूप का सहरा
कहाँ क़याम करूँ कोई साएबाँ तो मिले

ये रोज़-ओ-शब भी हमारे बदल तो सकते हैं
कभी ज़मीन से आ कर ये आसमाँ तो मिले

रिहा हुए हैं मगर 'लैस' ये रिहाई क्या
क़फ़स से छूटने वालों को आशियाँ तो मिले
Read Full
Lais Quraishi
कोई पयाम-ए-मुसलसल है शोर-ए-दरिया भी
तही-सुख़न से नहीं है सुकूत-ए-सहरा भी

फ़ज़ा-ए-दश्त में अहल-ए-जुनूँ के हंगामे
हमें तो रास न आई मगर ये दुनिया भी

ज़मीन-ए-तिश्ना-ए-दहन की सदा तो आई थी
मगर ये बात कि अब्र-ए-बहार बरसा भी

ये बू-ए-गुल भी परेशाँ बहुत हुई लेकिन
बहुत हुआ मिरी आवारगी का चर्चा भी

किया है फ़त्ह कोई लम्हा-ए-वफ़ा जब से
मिरी गिरफ़्त में इमरोज़ भी है फ़र्दा भी

अभी तो तिश्ना-लबी के सुरूर में गुम हैं
हम अहल-ए-ज़र्फ़ करेंगे कभी तक़ाज़ा भी

जहाँ को देखने वाली हज़ार आँखें हैं
इन्हीं में होगी कहीं कोई चश्म-ए-बीना भी

जो बे-हुनर हैं वो शाइस्ता-ए-गुनाह नहीं
गुनाह करने में इक शर्त है सलीक़ा भी

अजीब आलम-ए-बेगांगी में आ निकले
गराँ गुज़रती है दिल पर तिरी तमन्ना भी

जो मिल रहा था ब-ज़ाहिर बड़े ख़ुलूस के साथ
जनाब-ए-'लैस' ने उस आदमी को समझा भी
Read Full
Lais Quraishi
सुकूत-ए-लब को मिरे अर्ज़-ए-हाल ही समझो
मिरी अना-ए-ख़फ़ी को सवाल ही समझो

वो रू-ब-रू हैं मिरे दिल मगर ये कहता है
ख़याल-ए-हुस्न को हुस्न-ए-ख़याल ही समझो

रफ़ाक़तों के क़रीने बदलते रहते हैं
सो कर्ब-ए-हिज्र को लुत्फ़-ए-विसाल ही समझो

तड़प रहे हैं जो यूँ हम सदा-ए-साज़ के साथ
उसे कुछ और नहीं वज्द-ओ-हाल ही समझो

मिरे हुनर को रहा बज़्म-ए-कम-नज़र से गुरेज़
उसे भी मेरे हुनर का कमाल ही समझो

हवा-ए-सुब्ह-ए-चमन और एक बार अगर
गुज़र गई तो हमें पाएमाल ही समझो

दिलों के ज़ख़्म छुपे हैं लहू की चादर में
तुम्हें ग़रज़ नहीं तुम इंदिमाल ही समझो

हुसूल-ए-कैफ़ को मय-ख़ाना-ए-हयात में 'लैस'
शिकस्त-ए-जाम से पहले मुहाल ही समझो
Read Full
Lais Quraishi

LOAD MORE