Wazir Agha

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Wazir Agha shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Wazir Agha's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Nazm
तब वो बे-साख़्ता रो पड़े सीना-कूबी करे
जाने वाले का मातम करे
बैन करते फिरे
आख़िरी पात के सोग में
तिलमिलाती रहे
ज़ात के रोग में

फिर वो रुत आए जब
चिकनी काई-ज़दा सी चट्टानों पे देखूँ मैं ख़ुद को
मैं आँखों के पानी को रोकूँ मगर पानी कैसे रुके
तब मैं चीख़ूँ बुलाऊँ उसे
गहरे नीले समुंदर की तह में वो होगी कहीं कौन जाने
मगर वो बुलावे को सुन कर समुंदर की तह से उभर कर
मिरे पास आए मुझे छू के देखे
कहे तुम कहाँ थे
ख़ुदारा बताओ कि तुम इतना अर्सा कहाँ थे
मुझे ख़ुद से लिपटाए महकी हुई गोद में ले के झूला झुलाए
कोई गीत गाए जो सय्याल चाँदी का चश्मा सा बन कर बहे
धुँद बन कर उड़े
मुझ को सूरज की गंदी तमाज़त से महफ़ूज़ कर दे
कहे अब तो जाने न दूँगी तुम्हें
अब मैं जाने न दूँगी तुम्हें

और मैं
अपने बोझल पपोटों को मीचे
किसी नर्म झोंके के क़दमों की आहट सुनूँ
तंग होते हुए दूधिया बाज़ुओं के
मुलाएम से हल्क़े में सोने लगूँ
काश सोने लगूँ
काश मैं सो सकूँ
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सफेदे के सुम्बुल के
और पॉपुलर के छरीरे शजर
मिरी जोह में आए थे जब
मिरी सब्ज़ धरती का इक भी परिंदा
उन्हें देखने इन की शाख़ों में
आराम करने को तय्यार हरगिज़ नहीं था
कभी कोई फूले परों वाली
इक फूल सी फ़ाख़्ता
इन की शाख़ों की जानिब उमंडती
तो बू से परेशान हो कर
फ़लक की तरफ़ तीर बन कर
कुछ इस तौर जाती
कि जैसे वो वापस ज़मीं पर नहीं आएगी

और अब हाल ये है
फुला ही के कीकर के बेरी के सब पेड़
इन आने वालों से घबरा के
जाने कहाँ चल दिए हैं
घने सब्ज़ शीशम के छितनार मुरझा गए हैं
अगर कोई बरगद या पीपल का
इक आध हैकल
किसी कोने खुदरे में
आँखों को मीचे
परों को समेटे खड़ा है
तो क्या है
उसे कब किसी आने वाले
चले जाने वाले से कोई तअ'ल्लुक़ रहा है

जो यूँ है तो आओ चलें
आने वालों से चल कर मिलें
इन से पूछें
कहाँ से तुम आए हो भाई
इरादा है कब तक यहाँ ठहरने का
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समुंदर अगर मेरे अंदर आ गिरे
तू पायाब लहरों में ढल के सुलगने लगे
प्यास के बे-निशाँ दश्त में
व्हेल मछली की सूरत तड़पने लगे
हारपूनों से नेज़ों से छलनी बदन पर
दहकती हुई रेत के तेज़ चर के सहे
और फिर रेत पर झाग के कुछ निशाँ छोड़ कर
ता-अबद सर-बुरीदा से साहिल के साए में
होने न होने की मीठी अज़िय्यत में खोया रहे
ये होने न होने की मीठी अज़िय्यत भी क्या है
निगाहें उठाऊँ तो हद्द-ए-नज़र तक
अज़ल और अबद के सुतूनों पे बारीक सा एक ख़ेमा तना है
न होने का ये रूप कितना नया है
और खे़मे के अंदर
करोड़ों सितारों का मेला लगा है
ये होने का बहरूप ला-इंतिहा है
मिरा जिस्म
रेशम का सद-चाक ख़ेमा
किसी बे-कराँ दश्त में बे-सहारा खड़ा है
मगर जब मैं आँखें झुकाऊँ
तो उस सर्द खे़मे के अंदर
करोड़ों तड़पते हुए तुंद ज़र्रों का इक दश्त फैला हुआ है
ये होने न होने की मीठी अज़िय्यत
अजब माजरा है
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सहर हुई तो किसी ने उठ कर
लहू में तर एक सुर्ख़ बूटी
बड़ी कराहत से
आसमाँ के फ़राख़ आँगन में फेंक दी और
तवील मतली की जान-लेवा सी कैफ़ियत से नजात पाई
मगर फ़लक के फ़राख़ आँगन में
बादलों के सफ़ेद सग उस के मुंतज़िर थे
झपट पड़े उस लहू में तर दिल के लोथड़े पर
झपट पड़े एक दूसरे पर
ज़मीन के लोगों ने देर तक ये लड़ाई देखी
सफ़ेद कुत्तों के सुर्ख़ जबड़े
लहू में तर एक लाल टुकड़ा दरीदा सूरज
हरीस गिराते बादलों का तवील गहरा मुहीब दुखड़ा
मिरी ज़मीं भी तो गोश्त का लोथड़ा थी जिस को
किसी ने अंधे ख़ला में फेंका
मगर न कोई भी उस पे झपटा
तब उस के अंदर से आए बाहर
उसी के दुश्मन
उसी की बू पर
हज़ारों खूँ-ख़्वार तुंद कुत्ते
हरीस जबड़े
और अब दरीदा ज़मीन सारी
टपकते गिरते लहू के क़तरों में रिस रही है
ख़ुद अपने खूँ-ख़्वार तुंद बच्चों के तेज़ जबड़ों में पिस रही है
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कभी ख़ुश्क मौसम में पुर्वा जो चलती
तो बंजर पहाड़ों घने गर्द-आलूद शहरों से कतरा के
हम तक पहुँचती
हमें तुंद यादों के गिर्दाब मैं
डूबते और उभरते हुए देख कर हम से कहती
मैं उन सब के जिस्मों से मस हो के आई हूँ
उन के पसीने की ख़ुश्बू को
अपने लिबादे में भर कर
हथेली पे रख कर मैं लाई हूँ
कभी सुर्ख़ सूरज निकलता
तो हम उस से कहते
तुम्हारी दहकती हुई आँख का राज़ क्या है
वो कहता
मैं इन सब की आँखों के ग़ुर्फों से
ये सारी उजली तमाज़त चुराता रहा हूँ
मैं दरयूज़ा-गर उन चराग़ों से ख़ुद को जलाता रहा हूँ
उन्हें हम ने ढूँडा
कभी सब्ज़ शबनम के छींटों में तारों की रोती हुई अंजुमन मैं
कभी सुब्ह की क़त्ल-गाह शब के घायल बदन में
उन्हें हम ने आवाज़ दी कू-ब-कू
ग़म में डूबी हुई बस्तियों से अटे ख़ाक-दान-ए-वतन में
मगर वो नहीं थे कहीं भी नहीं थे
कहीं उन के क़दमों की हल्की सी आवाज़ तक भी नहीं थी
फिर इक रोज़ धरती का मौसम जो बदला
तो बादल ने शानों से हम को हिला कर जगाया
कहा उन के आने का पैग़ाम आया
चहकते परिंदों ने शाख़ों से उड़ कर
हवाओं में इक दायरा सा बनाया
कहा उन के आने का पैग़ाम आया
धनक सात रंगों में लिपटी हुई
इक कमाँ बन के ज़ाहिर हुई
हम से कहने लगी अपनी आँखों से देखा है मैं ने उन्हें
तेज़ क़दमों से आते हुए
शाम हँसने लगी
उस की आँखों में ख़ुशियों के आँसू थे
आरिज़ पे शबनम
नगीनों की सूरत चमकने लगी थी
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सूरज का ज़िरह-बक्तर
चमका तो मैं घबराया
टूटी हुई खिड़की से
लहराता हुआ नेज़ा
कौंदे की तरह आया
मैं दर्द से चिल्लाया

होंटों ने पढ़े मंतर
सीमाब सी पोरों ने
इक पोटली अब्रक की
छिड़की मिरे चेहरे पर
और किरनों का इक छींटा
मारा मिरी आँखों पर
आँखें मिरी चुंधियाईं
कुछ भी न नज़र आया

जब आँख खुली मेरी
देखा कि हर इक जानिब
ज़रतार सी किरनों का
इक ज़र्द समुंदर था
और ज़र्द समुंदर में
चाँदी की पहाड़ी पर
मैं पेड़ था सोने का
शाख़ों में मिरी हर सू
झंकार थी पत्तों की
उड़ती हुई चिड़ियों की
या आग की डलियों की
इक डार सी आई थी
और मुझ में समाई थी
क़दमों के तले मेरे
ज़ंजीर थी लम्हों की
मेरे ज़िरह-बक्तर से
जो कौंदा लपकता था
तारों के झरोकों तक
पल भर में पहुँचता था
मैं जिस्म के मरक़द से
बाहर भी था अंदर भी
मैं ख़ुद ही पहाड़ी था
और ख़ुद ही समुंदर भी
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गोरी-चट्टी याल घनी सी
दूध ऐसी पोशाक बदन की
लाम्बे नाज़ुक माथे पर मेहंदी का घाव
उड़ती-गिरती ख़ाक सुमों की
मुट्ठी-भर कर मुँह पर मिल कर दिल की प्यास बुझाओ
सदियों के दुख झेलते जाओ
रहे सफ़र में
हरे महकते खेतों में ख़ुश-बाश फिरे
अपने पीछे आती क़ुव्वत के नशे में खोया
रस्ते के हर भारी पत्थर को ठोकर से तोड़े
आगे ही आगे को दौड़े
आज यहाँ तक आ पहुँचा है
पर वो कल अब दूर नहीं है
जब उस के क़दमों के भाले
क़र्या क़स्बा शहर सभी को
पल-भर में मिस्मार करेंगे
हर शय को ताराज करेंगे
इस मरक़द से
उस मरक़द तक
राज करेंगे
और फिर वो दिन भी आएगा
जब इक तेज़ सुनहरा नश्तर
शह-ए-रग में इस की उतरेगा
ख़ून का फ़व्वारा छूटेगा
और वो क़ुव्वत
रेंगती और फुँकारती क़ुव्वत
मौज में आ कर नाच उठेगी
ख़ुशी से पागल हो जाएगी
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सावन
तेरी भीगी पलकें
झुकी हुई अच्छी लगती हैं
टप टप गिरती निर्मल बूँदें
शब भर टीन की ठंडी छत पर
नाज़ुक सी पोरों से टाइप करती हुई
अच्छी लगती हैं
गए दिनों के नाम
मोअ'त्तर ख़त लिखती अच्छी लगती हैं
छत के नीले काग़ज़ के नीचे मैं ख़ुद भी
जैसे इक मैला सा कोरा काग़ज़ हूँ
मेरे बदन पर
पोरों की मीठी ज़र्बों से
लफ़्ज़ों के साए उतरे हैं
ख़त के सारे शब्द मुझे पहचान गए हैं
क्या लिक्खा है
क्या जानूँ मैं क्या लिक्खा है
कौन सी ऐसी अनहोनी सी बात थी जिस ने
बरसों पहले
न कहने के पल्लू से ख़ुद को बाँधा था
और फिर दिल की डोली में महबूस हुई थी
इतने लम्बे बोझल सालों
ख़ुद से भी वो छिपी रही थी
आज उसे किस मजबूरी ने
लफ़्ज़ों के लब छू लेने पर उकसाया है
गए दिनों के नाम ये नामा लिखवाया है
सावन का ये आख़िरी दिन है
कल जब भादों आ जाएगा
टीन की छत पर अपने उजले पर फैलाना
आने वाली सुर्ख़ रुतों के
ख़्वाबों में जब खो जाएगा
सब आवाज़ें थम जाएँगी
पलकें थक कर सो जाएँगी
गए दिनों का नाम
मनों मिट्टी के नीचे दब जाएगा
अगला सावन कब आएगा
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तेज़ तलवार की धार ऐसी सदा
क़तरा क़तरा मिरे ख़ून में
पिघले से के मानिंद गिरती रही
मेरी रग रग में घुल कर बिखरती रही
और फिरे हुए तुंद ज़र्रों की सूरत
मिरे जिस्म में दौड़ती झनझनाती फिरी

सुब्ह होने को है
कोई दम में ये ज़ख़्मों भरी रात की गर्म चादर
उजाले के साबुन में धुल कर निखर आएगी
हर तरफ़ नर्म-ओ-नाज़ुक सी ख़ुशियों के छींटे
किवाड़ों को छेड़ेंगे सुलाएँगे
फूल खिल जाएँगे
क़हक़हों चहचहों की ज्वाला
स्याही के धब्बों को खा जाएगी
सोचता हूँ
ये इक तेज़ सी धार ऐसी चमकती सदा
जिस की किर्चें मिरी एक इक रग में
पंजों को गाड़े खड़ी हैं
कहाँ जाएगी
इतनी सदियों के बन-बास को झेल कर
अपने घर आई नारी से अब किस तरह मैं कहूँ
जाओ
ये घर तो ख़ुशियों की रानी का घर है
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इक पीपल के नीचे मैं ने अपनी खाट बिछाई
लेट गया मैं खाट पे लेकिन नींद न मुझ को आई
आहें भरते करवटें लेते सारी उम्र गँवाई

पीपल के पत्तों को गिनते करते उन पर ग़ौर
पीपल की शाख़ों को तकते बीत गया इक दौर
पीपल की हर चीज़ पुरानी अलबेला हर तौर

चले हवा तो डाली डाली लचक लचक बल खाए
रुके हवा तो साधू बन कर ध्यान का दीप जलाए
झक्कड़ के हर वार पे डोले चीख़ चीख़ रह जाए

पीपल की शाख़ों पर बैठे कुछ पंछी सुस्ताएँ
बाहर से कुछ आने वाले इक कोहराम मचाएँ
गाएँ गीत अनोखे मिल कर नाचें और नचाएँ

पीपल क्या है जोगी का बे-दरसा इक स्थान
झोंके पत्ते पंछी इंसाँ सब इस के मेहमान
खाट पे लिपटा सोच रहा हूँ मैं मूरख नादान
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