जिसने मुझसे कुर्बत में क़ाएदा नहीं रक्खा
उससे मैंने फिर कोई राब्ता नहीं रक्खा
आज मुझमें खुद्दारी आ गई तो दिक़्क़त है
कल नहीं थी फिर भी तो वास्ता नहीं रक्खा
हैं बहुत ग़म-ओ-गुस्सा ज़िंदगी मेरी भी पर
मैंने रब्त रखने में दायरा नहीं रक्खा
उम्र भर जो कहता था मान लेती मैं कहना
रंज है कि मैंने क्यों आइना नहीं रक्खा
और क्या मुहब्बत में इंतिहा मेरी होगी
बाद उस के भी उस से फ़ासला नहीं रक्खा
ज़िन्दगी के तूफ़ाँ में मेरे दिल ने ज़्यादातर
हौसला रखा है और हादसा नहीं रक्खा
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