दाग़ देहलवी! इस शख्स का पहला शेर या यूँ कहिए कि पूरी ग़ज़ल जो मेरे आगे से गुज़री उसके कुछ अशआर यूँ थे...
जिस बात ने मुझे सबसे पहले इन्हें पढ़ने के लिए मजबूर किया वो hip hop की ज़बान में कहें तो flow थी। हर मिसरे में काफ़िया कोई खास बात नहीं थी, मगर इस ग़ज़ल में थी। और "हमीं जानते हैं जो हम देखते हैं" वाला मिसरा इस मामले में मेरी बात समझाएगा। दाग़ की ज़बान सीधी ज़बान है, कोई मुश्किल लफ्ज़ नहीं और सीधी शायरी भी जान पड़ती है। मगर दाग़ अगर दिल पर लग जाएँ एक बार, तो छोड़ते नहीं ज़िन्दगी भर और मजबूर कर देते हैं दाद देने पर कि दाग़ अच्छे हैं।
दिल के मुआमले cliché ही होते हैं। सीधी साफ़ बातें हैं। मोहब्बत है तुमसे, कह दिया अब जवाब जो भी हो। जवाब मुखालिफ़ हुआ तो जवाब से रंजीदा भी रहेंगे, सिसकियाँ भी भरेंगे, तुम पर तंज़ भी कसेंगे। दाग़ आशिक है। वो हर रंग की शाइरी में नज़र आएगा मगर जो शदीद रंग है सो इश्क़ और आशिकी का है।
कुछ अशआर जो दाग़ को दिल पर चोट करने वाला एक मोहब्बत पिलाया हुआ तीर बना देते हैं, हमारे सामने हैं...
आप इश्क़ क्यों करते हैं या इंसान इश्क़ क्यों करता है? अमूमन इंसान इस बात से नावाकिफ़ नज़र आता है। पर दाग़ कह रहे हैं कि मेरे इश्क करने का तो एक ही सबब है और एक ही मतलब है, कि दम निकल जाए हिचकियाँ आते आते। क्या यहाँ मुराद आशिक के दम निकलने से है? या माशूक़ के? यही इस शेर की खासियत है कि इसे दोनों के लिए माना जा सकता है। पर अब ये बात है कि भला हिचकियाँ आते आते कब दम निकलता है। जब आपको कोई रोज़ ओ शब हमावक्त याद कर रहा हो। यानि फिर तो दाग़ खुद के लिए नहीं बल्कि महबूबा के लिए मौत मांग रहे हैं! जी नहीं! मांग नहीं रहे। शायद warning दे रहे हों कि मुझे प्यार करने का एक ही मतलब है कि मर जाओगे हिचकियाँ आते आते। एक अजीब सी बात चुटकुले के लहजे में कहने से प्यारी हो गई है।
दाग़ उस समय के लोगों में हैं जो लहजे से ज़ात का अंदाज़ा लगा लेते थे। लोग सीधे थे उस समय, बातें करते थे, दिल की रंजिश जुबान पर आ जाती थी। आज ये मुमकिन नहीं। आज इंसान कम अज़ कम तीन परतें रखता है। दिल में कुछ, ज़बाँ पर कुछ और काम में कुछ और। तू ने जिस तरह बोला है, सुनकर तो यही लगता है कि तू रंजीदा है मुझसे! अच्छा? नहीं है? तो अगर तू दिल में रंजीदा नहीं है तो तेरी ज़ुबान से ये बात कैसे निकली?
पहले तो एक पल रूककर लहजे का मज़ा लीजिए जनाब! क्या कहने! जो कहीं ज़बान को रूकना पड़ा हो! मक्खन भाई मक्खन! फिर आइए बात पर! सूरत-ए-हाल बयान किया है। क्या बजा फरमाया है कि इस दुनिया में किसी की परेशानी किसी की खुशी का सबब होती है तो किसी का ग़म किसी के लिए मज़ा! अच्छा ये देखिये कि दाग़ अपनी महबूबा पर taunt नहीं ना मार रहे? हो भी सकता है कौन जाने! महबूब के सितम का बयान इन मोहमल अल्फाज़ों में सितम को भी करम कर देता है |
भूल जाइए के कातिल और बिस्मिल की बात हो रही है। एक बेवफ़ा महबूबा भी तो उसी आशिक से आंख चुराएगी जो दग़ा सहने के बाद भी आंखों से आंखें मिलाए उसे देखता रहे। कातिल ने कत्ल किया, बिल्कुल किया ! मगर वो कमज़ोर है। मेरा बिस्मिल जिसने दर्द सहा, खुद्दार है। आखिरी सांस भी खौफ़नाक है बिस्मिल की कातिल के ज़मीर के लिए। ये हज़रत ए दाग़ के यहाँ बहुतायत में मिलेगा आपको।
इस कदर मोहमल लहजा और इज़हार है कि कोई जो माअनी न बूझे वो तो मानेगा ही नहीं कि मरने की बात हो रही है। ज़िन्दगी को यारों सा मानता हुआ दाग़ कहता है कि सब यार चले गए, तू भी कुछ दिन की मेहमान है ज़िन्दगी! एक संजीदा बात को इस कदर आसान कर देना और इसका romanticism अपनी जगह अलग रखता है। ये typical दाग़ हैं।
हमेशा से ये बहस सुनते आएं हैं हम के आर्ट चाहे वो कोई सा भी हो, उसकी ज़रूरत क्या है! क्या इसके बगैर भी ज़िन्दगी बसर हो सकती है? कुछ कहेंगे, "आदमी के अंदरून का इज़हार ही आर्ट है और ये ज़रूरी है! ", यहाँ दाग़ एक नया ज़ाविया लेकर आते हैं कि आप आर्ट को पहले से ज़रूरत के खाने में नहीं डाल सकते। पर ये आदमी की रोज़मर्रा की ज़रूरत में कहीं न कहीं दिख ज़रूर जाएगा। मसलन, इस शेर में अफसानानिगार के अफसाने नींद उड़ाने वाले हैं और वो ग़ज़ब का अफसानानिगार है तो हुआ करे, आम आदमी से क्या सरोकार। पर अगले ही मिसरे में कमाल देखें की चौकीदार जिनका काम रात में जागना ही तो है, वो इसके लिए दुआ पढ़ते हैं। आर्ट बिन मांगे मिलने वाली अमृत है कि जो कभी कभी मांग कर मिलने वाले पानी से ज़्यादा शीतल जान पड़ती है।
Romanticism के लिहाज़ से बला का शेर है। मतलब ज़ाहिर ही है। "देखने वाले, देखो" ने माअनी की सतह पर एक कमाल किया है जो शेेरियत के अलावा दाग़ की खासियत है।
किस कदर प्यारा शेर है! एक तरह का इस्तियारा हमें क़त्ल करने के तौर पर मिलता है। यहाँ क़त्ल करना क्या हैं? इश्क़ में हमारा महबूब हमें कातिल ही तो नज़र आता है। किस कदर भोला महबूब है दाग़ का कि क़त्ल करके हर किसी से पूछता है ये किसने किया! खुदा ऐसा महबूब हर किसी को दे।
मिर्ज़ा नौशाँ ने शेर कहा, "गालिब़ बुरा ना मान, जो वाइज़ बुरा कहे, ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे!" मिर्ज़ा तो खैर वाइज़ के बारे में कहते हैं, वाइज़ की बुराई और माशूक की गाली में क्या एक सा है? सच कहूं तो बूरा दोनों का लगता है। पर माशूक की गाली से जो बुरा लगे वो शेर कहलवाता है |दाग़ खालिस आशिक़ है |
ख्वाब देख पाना सचमुच एक नेमत है। एक मेहनतकश, एक आशिक़ और एक शाइर के लिए तो आंख झपकते ही सहर होना लाज़मी होता है |
निहाँ रंज़ का बयान है। दाग़ कह रहे हैं कि तुम दीदार नहीं करा रहे, पर हमारा दिल चाहते हो। ये तो ऐसी बात है कि पराय माल पर नज़र है और अपनी दौलत अपने पास! ये कैसा तिजारती सौदा है?
ऐसे बहुत से अशआर दाग़ को आशिक़ी और शाइरी के उस्ताद के रूप में स्थापित करने के लिए काफी है। दाग़ को और पढ़ा जाए और classical शाइरी के इम्कानात से वाकिफ़ हुआ जाए! दाग़ आपके लिए अपनी महबूबा को शेर भेजने के लिए उपयोग किए जाने वाले दोस्त हो सकते हैं।
Md T khan
Sad