नमस्कार साथियों


आज की क्लास में हम जिस बहर को बारीकी से जानेंगे उसका नाम है ख़फ़ीफ मुसद्दस मख़बून अबतर। आप सोच रहे होंगे यह कैसा अजीब नाम है और कितना भयावह है। क्या ऐसे नामों को ज़ेहन में उतारा जा सकता है? अगर हम इस बहर पर कोई ग़ज़ल लिख भी देते हैं तो किसी के पूछने पर इस बहर का नाम बता पाना कितना कठिन होगा? नाम ऐसा है तो बहर कैसी होगी?, मैं समझ सकता हूँ कि आपके दिमाग़ में ऐसे कई सवाल आ रहे होंगे। यक़ीन मानिए आप जब इसका रुक्न रूप देखेंगे तो आपको यह बहर सबसे आसान लगेगी।


चलिए फिर अब हम इस बहर का रुक्न रूप देखते हैं।


2122-1212-22


फ़ाइलातुन- मुफ़ाइलुन- फ़ैलुन


बह्र-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून अबतर


चूँकि इस का नाम इतना बड़ा है तो इसे बनाने में जो काम हुआ है वो भी ख़ासा बड़ा ही है।


इस blog में हम बहर के nomenclature को थोड़ा और बारीकी से देखेंगे।


इस बहर की दो ख़ासियतें हैं:-


1. यह एक मुरक्कब बहर है यानी इसे बनाने के लिए दो अलग मूल रुक्नों का इस्तेमाल हुआ है।


2. और फिर बने हुए टुकड़ों में बदलाव करने को एक खास प्रकार की विधि विशेष जिसे अरूज़ में ज़िहाफ़ कहते हैं, का इस्तेमाल हुआ है।


सो यह एक मुरक्कब मुज़ाहिफ़ बहर है, चलिए अब हम देखते हैं यह किस तरह बनी है।


जब हम रमल (फ़ाइलातुन) के दो रुक्न के बीच में रजज़ (मुस्तफ़इलुन) का एक रुक्न डालते हैं तो हमें अग्रलिखित रूप मिलता है-


फ़ायलातुन-मुस्तफ़इलुन-फ़ायलातुन


2122-2212-2122


और इस बहर को हमने बहर-ए-ख़फ़ीफ़ का नाम दिया।


फिर इसके बीच के रुक्न 2212 को ज़िहाफ़ के एक प्रकार ख़ुब्न का इस्तेमाल करके मुतफ़इलुन (1212) में बदल दिया।


और इसके आख़िरी रुक्न 2122 को एक और ज़िहाफ़ बत्र का इस्तेमाल करके फ़ाला (22) में बदल दिया।


इसके बाद प्राप्त रुक्नों 1212 और 22 को इनके मानक रुक्न मुफ़ाइलुन और फ़ैलुन से एक्सचेंज कर लिया।


चूँकि दोनों मिस्रों को मिलाकर कुल छः रुक्न बनते हैं इसलिए इसे मुसद्दस (छः घटक वाली); एवं दो प्रकार के ज़िहाफ़ ख़ुब्न और बत्र का इस्तेमाल हुआ है इसलिए इन रुक्नों को हम मख़बून एवं अबतर कहेंगे।


इस तरह इस बहर का नाम बहर-ए-ख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़बून अबतर हुआ।


इस बहर में हमें कुछ विशेष छूट मिलती है, जैसे कि हम इस बहर के पहले रुक्न 2122 को ज़रूरत पड़ने पर 1122 भी ले सकते हैं और इस बहर के आख़िरी रुक्न 22 को 112 भी ले सकते हैं। 


अब आप सब ही बताइए कि इस बहर में मुश्किलात जैसा क्या है। एक तो सबसे छोटी बहरों में से एक और ऊपर से इतनी सारी रियायतें।


आइए अब हम आगे बढ़ते हैं और इस बहर में लिखी ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी 'मीर' साहब की एक ग़ज़ल देखते हैं -


2184


अगर हम इसके कुछ मिसरों की तक़्तीअ करके देखें तो इस बहर में मिलने वाली सभी प्रकार की छूट को देख पाएँगे -


क्या कहूँ तुम/ से मैं कि क्या/ है इश्क़


2122/1212/22 +1


जान का रो/ग है बला/ है इश्क़


2122/1212/22


इश्क़ ही इश्/क़ है जहाँ/ देखो


2122/1212/22


सारे आलम/ में भर रहा/ है इश्क़


2122/1212/22


इश्क़ मा'शू/क़ इश्क़ आ/शिक़ है


2122/1212/22


या'नी अपना/ ही मुब्तला/ है इश्क़


2122/1212/22


गर परस्तिश/ ख़ुदा की सा/बित की


2122/1212/22


किसू सूरत/ में हो भला/ है इश्क़


1122/1212/22


है हमारे/ भी तौर का/ आशिक़


2122/1212/22


जिस किसी को/ कहीं हुआ/ है इश्क़


2122/1212/22


'मीर'-जी ज़र्/द होते जा/ते हो


2122/1212/22


क्या कहीं तुम/ ने भी किया/ है इश्क़


2122/1212/22


जैसा कि आप सब जानते हैं कि ग़ज़ल के किसी भी मिसरे के अंत में हमें +1 करने की छूट होती है, यहाँ भी उसका इस्तेमाल किया गया है। 


आइए इस बहर में लिखी गई कुछ और ग़ज़लें देखते हैं-


12882


16919


29654


1858


1851


45792


1921


45791


45793


45790


आज की क्लास थोड़ी लंबी थी और उर्दू के मुश्किल लफ़्ज़ों से हमारा सामना हुआ। हमने बहरों के Nomenclature को और बारीकी से समझा। यानी कि इस series से आपको बहरों का अच्छा ख़ासा इल्म तो होगा ही, आप उनका नामकरण भी सीख जाएँगे। चलिए कुल मिलाकर इल्म में इज़ाफ़ा ही हो रहा है, यही हमारी भी कोशिश है।


उम्मीद करता हूँ आज की क्लास आप सब को अच्छी लगी होगी, मिलते हैं अगले blog में एक और बहर के साथ। 


धन्यवाद।