नमस्कार साथियों


उम्मीद करता हूँ कि आप सब इस series को follow कर रहे होंगे। इस series में हम अरूज़ की 32 प्रचलित बहरों को बारीकी से समझ रहे हैं और उन पर लिखी बेहतरीन ग़ज़लें भी देख रहे हैं। 


आज की क्लास में हम जिस बहर को बारीकी से जानेंगे उसका नाम है कामिल मुसम्मन सालिम। इस बहर का नाम जितना आसान है, लिखना भी उतना ही आसान। ऐसा इसलिए कि इस बहर में ग़ज़ल लिखते वक़्त हमें काफ़ी शब्दों के वज़्न गिराने की छूट मिल जाती है, इसलिए इस बहर में ग़ज़ल लिखना थोड़ा आसान हो जाता है। चलिए इसे और आसान करते हुए अब हम इस बहर का रुक्न रूप देखते हैं। 


11212-11212-11212-11212


मुतफ़ाइलुन-मुतफ़ाइलुन-मुतफ़ाइलुन-मुतफ़ाइलुन


बहर-ए-कामिल मुसम्मन सालिम 


अब तक के blog में हमने बहर के नाम को लेकर कुछ बातें सीखी थीं। आज हम आपको बहर के nomenclature के नियम से रू-ब-रू कराएँगे।


बहर के नाम लिखने के नियम कुछ इस प्रकार है -


"बहर के रुक्न का नाम + रुक्न की संख्याओं का नाम + रुक्न के अरकान में कोई बदलाव नहीं है तो सालिम लिखेंगे अथवा अरकान में ज़िहाफ़ अनुसार कोई बदलाव किया गया है तो, इस्तेमाल किए गए मुज़ाहिफ़ रुक्न के प्रकार का नाम लिखेंगे।" इस नियम के ज़रिए अब आप किसी भी बहर का नाम लिख सकते हैं।


आज हम जिस बहर को बारीकी से समझ रहे हैं उसका नाम है कामिल मुसम्मन सालिम। चलिए अब हम देखते हैं यह बहर किस तरह बनी है।


यह बहर सात हर्फ़ी अरकान से बनी है। इस बहर की मूल रुक्न 11212 यानी मुतफ़ाइलुन है जिसे 'अरूज़-शास्त्र' में कामिल कहते हैं।


चूँकि इसमें दोनों मिसरों को मिलाकर कुल रुक्न की संख्या आठ है इसलिए इसे मुसम्मन अर्थात आठ घटक वाली और सभी अरकान में से किसी में कोई परिवर्तन नहीं किया है तो इसे हम सालिम (सलामत) कहते हैं।


इस प्रकार इस बहर का नाम बनता है:-


बहर-ए-कामिल मुसम्मन सालिम


यह बहर रुक्न की संख्या अनुसार सबसे लंबी सालिम बहरों में से एक है, लघु हर्फ़ के अधिक इस्तेमाल होने की वजह से यह बहर अन्य बहरों के मुक़ाबले ग़ज़ल लिखने के लिए काफ़ी आसान है।


यह अरूज़ की एकमात्र ऐसी बहर है जिसपर शायरों ने, आजतक इसके सालिम रुक्नों पर ही शेर कहे हैं।


इसकी मुज़ाहिफ़ रुक्न बिल्कुल भी प्रचलित नहीं हैं क्योंकि इसके अस्ल अरकान पर ही शायरों ने बड़े कमाल के अश'आर कहे हैं, एवं सुनने वालों को भी अलग प्रकार का लुत्फ़ प्राप्त होता है।


आइए आगे बढ़ते हैं और इस बहर में लिखी बशीर बद्र साहब की एक बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल देखते हैं-


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चलिए इसके कुछ मिसरों की तक़्तीअ करें -


कभी यूँ भी आ/ मिरी आँख में/ कि मिरी नज़र/ को ख़बर न हो


11212/11212/11212/11212


मुझे एक रा/त नवाज़ दे/ मगर इस के बा'/द सहर न हो


11212/11212/11212/11212


वो बड़ा रही/म ओ करीम है/ मुझे ये सिफ़त/ भी अता करे


11212/11212/11212/11212


तुझे भूलने/ की दुआ करूँ/ तो मिरी दुआ/ में असर न हो


11212/11212/11212/11212


कभी दिन की धू/प में झूम के/ कभी शब के फू/ल को चूम के


11212/11212/11212/11212


यूँ ही साथ सा/थ चलें सदा/ कभी ख़त्म अप/ना सफ़र न हो


11212/11212/11212/11212


यह ग़ज़ल इतनी शानदार है कि जब भी मैं इसे पढ़ता हूँ तो मुझे तरन्नुम में यह ग़ज़ल सुनाते हुए बशीर बद्र साहब की आवाज़ सुनाई देती है।


चलिए आगे बढ़ते हैं और इस बहर पर लिखी कुछ और ख़ूबसूरत ग़ज़लें देखते हैं:


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ये थीं इस बहर पर लिखी हुई कुछ बेहतरीन ग़ज़लें। उम्मीद है आप इस series से बहुत कुछ सीख कर अपने इल्म-ओ-फ़न में इज़ाफ़ा कर रहे होंगे।


आज की क्लास में बस इतना ही, मिलते हैं अगले blog में एक और बहर के साथ।


धन्यवाद।