आदाब अज़ीज़ों


अगर आप हमारे पिछले ब्लॉग को एक होनहार शागिर्द की तरह फॉलो करते आ रहे हैं तो आपको ज़रूर याद होगा कि दूसरे ब्लॉग में हमने जिस बहर के बारे में बात की थी वह एक मुरक्कब मुज़ाहिफ़ बहर थी। 


यानि ऐसी बहर जिसमें हम सालिम बहरों में से किन्हीं दो अलग मूल रुक्नों को लेकर और लिए गए रुक्नों में अरूज़ के नियमानुसार कमी-बेशी करते हुए बहर के नए सौत को तश्कील देते हैं।


सो आज की क्लास में भी हम जिस बहर की बारीक-बीनी से छानपटक कर रहे होंगे वो भी एक मुरक्कब मुज़ाहिफ़ बहर है। 


आपके ज़ेहन में यह बात आम तौर पर आई होगी कि क्या हम सिर्फ़ मुरक्कब बहर पर शेर नहीं लिख सकते? जी आप ज़रूर लिख सकते हैं लेकिन वह शेर लिखना majority of cases में जबरन होगा, मिज़ाजन नहीं। हमारे ज़बान की शेरी मिज़ाज मुरक्कब मुज़ाहिफ़ बहर पर ज़्यादा fit आती है।


तो मैं भी एक आदर्श शिक्षक के तौर पर यहाँ से बातचीत का सिलसिला ख़त्म करते हुए ब्लॉग के सिलसिले को आग़ाज़ करता हूँ।


नामकरण:


जब हम हज़ज (मुफ़ाईलुन) एवं रमल (फ़ाइलातुन) के रुक्नों को आपस में एक के बाद एक करके रखते हैं तो हमें निम्नलिखित बहरी स्वरूप दिखता है।


मुफ़ाईलुन/फ़ाइलातुन/मुफ़ाईलुन/फ़ाइलातुन


1222/2122/1222/2122


इस बहर को बहर-ए-मुज़ारे'अ मुसम्मन सालिम कहते हैं।


फिर इसके पहले एवं तीसरे रुक्न 1222 को ज़िहाफ़ के एक प्रकार क़ुब्ज़ का इस्तेमाल करके मुफ़ाइलुन (1212) में बदल दिया और बदले हुए अरकान मक़बूज़ कहलाए।


फिर इसके दूसरे और चौथे रुक्न 2122 पर ख़ुब्न का इस्तेमाल करके फ़इलातन (1122) में बदल दिया और बदले हुए अरकान को मख़बून कहा।


अब दुबारा चौथे रुक्न 1122 को हज़फ़ के उपयोग से फ़'इला (112) में बदल दिया और तस्कीन देते हुए "फ़े'ला/फ़ेलुन" (22) हासिल कर लिया। चौथे रुक्न पर इस पूरे काम को क़ित'अ और प्राप्त रुक्न को specially अरूज़-विद्या अनुसार मक़तू'अ कहते हैं।


इस तरह निम्नलिखित बहर प्राप्त होती है:-


मुफ़ाइलुन फ़इलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन


(1212/1122/1212/22)


चलें अब निम्नलिखित सारांश देखते हैं:-


बहर का नाम - मुज़ारे'अ


कुल अरकान - 8 (दोनों मिस्रों को मिलाकर इसलिए मुसम्मन (आठ घटकों वाली)


मुज़ाहिफ़ अरकान:


1. मक़बूज़


2. मख़बून


3. मक़तू'अ


उम्मीद है आप होनहार शागिर्दों को पिछले ब्लॉग में बहर के नाम लिखने का जो नियम बताया गया था, याद हो।


सो ऊपर लिखे सारांश का उपयोग करते हुए हम इस बहर का नाम इस तरह लिखेंगे:-


बहर-ए-मुज़ारे'अ मुसम्मन मक़बूज़ मख़बून मक़तू'अ


इस बहर में आख़िर के 22 को 112 करने की आम इजाज़त है, अब अगर "+1" के छूट को भी साथ रखें तो 221 और 1121 की भी सहूलत हो जाती है।


आइए इस बहर में लिखे गए हज़रत जौन एलिया की एक उम्दा ग़ज़ल को देखेंगे और उसके मिस्रों की तक़ती'अ करने का फ़ैज़ भी हासिल करेंगे।


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तक़ती'अ :-


तुम्हारा हिज्/र मना लूँ/ अगर इजा/ज़त हो 


1212/1122/1212/22


मैं दिल किसी/ से लगा लूँ/ अगर इजा/ज़त हो


1212/1122/1212/22


तुम्हारे बा/द भला क्या/ हैं वादा-ओ-/पैमाँ


1212/1122/1212/22


बस+अपना वक़्/त गँवा लूँ/ अगर इजा/ज़त हो


1212/1122/1212/22


तुम्हारे हिज्/र की शब हा/ए कार में/ जानाँ


1212/1122/1212/22


कोई चिरा/ग़ जला लूँ/ अगर इजा/ज़त हो


1212/1122/1212/22


जुनूँ वही/ है वही है/ मगर है शह/र नया


1212/1122/1212/112


यहाँ भी शो/र मचा लूँ/ अगर इजा/ज़त हो


1212/1122/1212/22


किसे है ख़्वा/हिश-ए-मरहम/ गरी मगर/ फिर भी


1212/1122/1212/22


मैं अपने ज़ख़्/म दिखा लूँ/ अगर इजा/ज़त हो


1212/1122/1212/22


तुम्हारे या/द में जीने/ की आरज़ू/ है अभी


1212/1122/1212/112


कुछ+अपना हा/ल सँभालूँ/ अगर इजा/ज़त हो


1212/1122/1212/22


आइए इस बहर में लिखी गई कुछ और ग़ज़लें मैं आप सीखने और पढ़ने वालों को हाज़िर करता हूँ जिन्हें पढ़कर उम्मीद है आपके ज़ेहन ताज़ा हों।








अभी कुछ और करिश्मे ग़ज़ल के देखते हैं
'फ़राज़' अब ज़रा लहजा बदल के देखते हैं

जुदाइयाँ तो मुक़द्दर हैं फिर भी जान-ए-सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चल के देखते हैं

रह-ए-वफ़ा में हरीफ़-ए-ख़िराम कोई तो हो
सो अपने आप से आगे निकल के देखते हैं

तू सामने है तो फिर क्यूँ यक़ीं नहीं आता
ये बार बार जो आँखों को मल के देखते हैं

ये कौन लोग हैं मौजूद तेरी महफ़िल में
जो लालचों से तुझे मुझ को जल के देखते हैं

ये क़ुर्ब क्या है कि यक-जाँ हुए न दूर रहे
हज़ार एक ही क़ालिब में ढल के देखते हैं

न तुझ को मात हुई है न मुझ को मात हुई
सो अब के दोनों ही चालें बदल के देखते हैं

ये कौन है सर-ए-साहिल कि डूबने वाले
समुंदरों की तहों से उछल के देखते हैं

अभी तलक तो न कुंदन हुए न राख हुए
हम अपनी आग में हर रोज़ जल के देखते हैं

बहुत दिनों से नहीं है कुछ उस की ख़ैर-ख़बर
चलो 'फ़राज़' को ऐ यार चल के देखते हैं
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Ahmad Faraz


जो दिन था एक मुसीबत तो रात भारी थी
गुज़ारनी थी मगर ज़िंदगी, गुज़ारी थी

सवाद-ए-शौक़ में ऐसे भी कुछ मक़ाम आए
न मुझ को अपनी ख़बर थी न कुछ तुम्हारी थी

लरज़ते हाथों से दीवार लिपटी जाती थी
न पूछ किस तरह तस्वीर वो उतारी थी

जो प्यार हम ने किया था वो कारोबार न था
न तुम ने जीती ये बाज़ी न मैं ने हारी थी

तवाफ़ करते थे उस का बहार के मंज़र
जो दिल की सेज पे उतरी अजब सवारी थी

तुम्हारा आना भी अच्छा नहीं लगा मुझ को
फ़सुर्दगी सी अजब आज दिल पे तारी थी

किसी भी ज़ुल्म पे कोई भी कुछ न कहता था
न जाने कौन सी जाँ थी जो इतनी प्यारी थी

हुजूम बढ़ता चला जाता था सर-ए-महफ़िल
बड़े रसान से क़ातिल की मश्क़ जारी थी

तमाशा देखने वालों को कौन बतलाता
कि इस के बा'द इन्ही में किसी की बारी थी

वो इस तरह था मिरे बाज़ुओं के हल्क़े में
न दिल को चैन था 'अमजद' न बे-क़रारी थी
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Amjad Islam Amjad


आज की क्लास का हम यहीं the end करेंगे‌। उम्मीद करता हूँ आपको इस blog से बहर के इल्म के बारे में काफ़ी कुछ नया सीखने को मिला होगा। और इस सीरीज में आगे भी हमेशा कुछ नया बताने की कोशिश रहेगी। मिलते हैं अगले blog में जिसमें एक और बहर को बारीकी से समझेंगे। तब तक के लिए Poetistic के साथ बने रहें।


धन्यवाद!