न कोई हुस्न-ए-ज़ाहिर है न पिन्हाँ में कमी पाई
मगर फिर भी कहीं इक दर्द-ए-पुरसाँ में कमी पाई
फ़लक के फ़ैसलों में इख़्तियार-ए-इश्क़ क्या हासिल
कहाँ हम ने कभी अज़्म-ए-परेशाँ में कमी पाई
मोहब्बत जिसको कहते हैं यहाँ मज़लूम होती है
ख़ुदा जाने कि इस आलम के हिर्साँ में कमी पाई
नज़र में क्या तसव्वुर था जो हम ने पा लिया आख़िर
तिरी कू-ओ-ख़राबी के गुमाँ पाँ में कमी पाई
हर इक क़ुर्बत में बेचैनी का एहसास-ए-शदीद आया
कभी राह-ए-तमन्ना के मकीं याँ में कमी पाई
जहाँ में लोग जलते हैं हज़ारों शौक़-ए-हस्ती से
मगर तौबा न इक तिश्ना-लबी आँ में कमी पाई
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