नहीं है फूल तो ख़ारों को छेड़ सकता हूँ
वो राब्ता जो बहारों को छेड़ सकता हूँ
हज़ारों शम्स-ओ-कमर पहलू में हैं जिनके भी
उन अहल-ए-दिल के ग़ुबारों को छेड़ सकता हूँ
अगर इनायत-ए-ख़ूँ में था ज़िंदगी के भी
तो ज़िंदगी के सहारों को छेड़ सकता हूँ
तमन्ना रम्ज़ बता दूँ जो आ गई अब याँ
तेरी नज़र के इशारों को छेड़ सकता हूँ
फ़िराक़ ग़म भी है पैदा हरीस-ए-हायों पर
यूँ फ़र्दगी में भी यारों को छेड़ सकता हूँ
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