आँखों को उसके अलावा और कुछ दिखता नहीं है
इस से ज़ाहिर है मोहब्बत का नशा उतरा नहीं है
एक वो भी दौर था जब हक़ जमाता था मैं उस पर
और अब ये हाल है वो शख़्स ही अपना नहीं है
ऐन मुमकिन है कि वो दुख जान ही ले ले सो मैंने
एहतियातन ख़त वो उसका आख़िरी खोला नहीं है
तुम कभी मुझको कलेजे से लगाकर आज़माना
झूठ कहती है ये दुनिया आदमी रोता नहीं है
शेर पर सीटी बजाकर दाद देने वालों सुन लो
एक महफ़िल है अदब की ये कोई मुजरा नहीं है
शाइरी के साथ जिसका वस्ल हो जाता है उसको
हिज्र के भी दौर में फिर जान का ख़तरा नहीं है
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