तसव्वुरात में चेहरा तेरा बनाता हूँ
इसी बहाने तेरे पास बैठ जाता हूँ
यूँ तो ज़माना भी वाक़िफ़ है मेरे तेवर से
पर इक निगाह है जिससे मैं ख़ौफ़ खाता हूँ
तमाम उम्र उसी इंतिज़ार में गुज़री
वो बोल कर गया था तुम रुको मैं आता हूँ
न जाने कैसा अजब रोग पाल रक्खा है
ख़ुशी में रोता हूँ और ग़म में मुस्कुराता हूँ
बस इसलिए भी कोई शख़्स मेरा हो न सका
मैं प्यार करता हूँ तो उम्र भर निभाता हूँ
फिर एक दिन मेरा दुनिया से क्या यक़ीन उठा
मैं तब से हर किसी का फ़ायदा उठाता हूँ
ग़ज़ल का ज़ायक़ा बढ़ना तो लाज़िमी है ‘हर्ष’
हर एक शे'र में अपना लहू जलाता हूँ
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