दर्द होता है मुस्कुराने में
कितना मजबूर हूँ ज़माने में
लुत्फ़ आता है ग़म उठाने में
ख़ुश हूँ अपने ग़रीब खा़ने में
ज़ख़्म भरते ज़ुरूर हैं लेकिन
वक़्त लगता है ग़म भुलाने में
जब न होगा रक़ीब तू जग में
ज़िक्र होगा मिरे फ़साने में
एक दूजे के बाँट लेंगें ग़म
आ भी जाओ गरीबखाने में।
घर बुलाता हूँ इसलिए उनको
कुछ उजाला हो आशियाने में।
मान भी जाइये कहा दिल का
फ़ायदा क्या है क़समसाने में।
दूसरा तुम"धरम" न पाओगे
ढूंढ़कर देख लो ज़माने में।
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