“चाँद ज़मीन पर कैसे उतर सकता है”
कुछ तो है जो मुझे ये सोचने पर मजबूर करता है
और मुझसे मुझको दूर करता है
जैसे हर किसी का तेरी बातें करना
जैसे तू मसअला-ए-रोज़गार हो
और फिर कोई कहे कि तू भी हम इंसानों में है
भला ऐसे शख़्स का किसे ऐतबार हो
तेरा दिन मे होना मगर नज़र न आना
बादलों यानी घर में रहना
और शाम होते निकल पड़ना
फिर से अपनी रौशनी से दुनिया को रौशन करने के लिए
कोई बताए मुझे ये उसके अलावा कौन कर सकता है
मगर, चाँद ज़मीन पर कैसे उतर सकता है
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