दिल इश्क़ में अब मुब्तिला सा लगता है
यह जिस्म भी मुझ को नया सा लगता है
क्या ऐसा भी हो सकता है इक अजनबी
जो आज भी क़िब्ला नुमा सा लगता है
तेरे लिए चल पड़ता हूँ मैं बस उधर
उस शहर में जो रास्ता सा लगता है
उस को अभी जाना था लेकिन रुक गया
जिस का मुझे रुकना सज़ा सा लगता है
As you were reading Shayari by Meem Alif Shaz
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