सफ़ीने को किनारे पे लगाना है
मगर तूफ़ान भी तो फिर से आना है
बहुत बारिश है, सड़कों पे भी पानी है
उसे आना नहीं यह तो बहाना है
अभी रोको न मुझ को ख़ूब चलने से
अभी तो मुझ को काफ़ी दूर जाना है
इमारत शीशे की हो या हो मिट्टी की
बशर को तो सभी कुछ छोड़ जाना है
अमीरी से नहीं मिलती कभी इज़्ज़त
फ़क़त अख़लाक़ ही सब का ख़ज़ाना है
मुझे मालूम है उस को नहीं आना
मेरी ख़लवत को अब मातम मनाना है
लगाते क्यों हो तुम भी पेड़ों में यह आग
परिंदो को भी अपना घर बसाना है
तुम्हारा रश्शा चाहे लोहे का ही हो
इसे भी एक दिन फिर टूट जाना है
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